धिक्कार इस जनतंत्र पर !
है विषमता ही विषमता
जाती जिधर भी है नज़र ,
कारे खड़ी गैरेज में हैं
और आदमी फुटपाथ पर .
एक तरफ तो सड़ रहे
अन्न के भंडार हैं ,
दूसरी तरफ रहा
भूख से इंसान मर
है विषमता ही विषमता
निर्धन कुमारी ढकती तन
चीथड़ों को जोड़कर
सम्पन्न बाला उघाडती
कभी परदे पर कभी रैंप पर
है विषमता ही विषमता
मंदिरों में चढ़ रहे
दूध रुपये मेवे फल ,
भूख से विकल मानव
भीख मांगे सडको पर
है विषमता ही विषमता
कोठियों में रह रहे
कोठियों में रह रहे
जनता के सेवक ठाठ से ,
जनता के सिर पर छत नहीं
धिक्कार इस जनतंत्र पर !
शिखा कौशिक
4 टिप्पणियां:
धिक्कार पर धिक्कार!
बेहतरीन रचना
सच कहा आंटी आपने इस कविता मे ।
सादर
vishamataa ko achchha rekhaankit kiyaa , badhayi
बहुत बेहतरीन रचना
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