अधूरी हसरतों की
अनगिनत लकीरें देखी
उसकी हथेली में
उसकी पेशानी पर
वो आसमा छूना चाहती थी कभी
लहराना चाहती थी
अपनी हसरतों ,अपनी अभिलाषाओं
का पंचम वहां
पर उसके पैरों के नीचे
से सीढ़ी खींच ली गई
एक दिन पंख फैला कर
उन्मुक्त गगन में
उड़ते हुए सितारे गिनने चाहे उसने
पर पंख कुतर दिए गए
अपने होंसले और
क्षमता से विस्तृत सागर
को पार करना चाहा उसने
पर पिंजरे में कैद कर दिया
अपना हुनर दिखाना चाहा उसने
पर मंच पर चढ़ने नहीं दिया
क्यूंकि वो एक स्त्री थी
उसकी हसरतों का क्या मूल्य है यहाँ ??
उसे तो अपने मन के आँगन में
हसरतों के बीज बोने का भी
अधिकार नहीं
अगर बो दिए और पौधे
निकल भी आये तो रोप देंगे वो
और नाकाबिलियत का पट्टा
डालकर गले में
बैठा देंगे किसी घर के कौने में
और फिर एक दिन
जल जायेंगी उसकी माथे की
अधूरी हसरतों की लकीरें
उसके जिस्म के साथ
और पटाक्षेप हो जाएगा
उसके अध्याय का
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अब तक होता आया जो बस अब और नहीं और नहीं !!