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शनिवार, 29 दिसंबर 2012
सोमवार, 24 दिसंबर 2012
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिए
औरत ने जन्म दिया मर्दों को
मर्दों ने मौत का सामान दिया
कभी पर्वों में पूजा देवी कहकर
कभी सरे आम शर्मसार किया
ये दोगली चाल कुचलनी चाहिए
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिए
कभी झूठी दिखाई सहानुभूति
अबला कह कर लाचार किया
कभी कुलटा दुश्चरित्रा कहा
खुद ही अस्मत पर प्रहार किया
सुप्त क्रोधाग्नि वो जलनी चाहिए
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिए
वो सहनशीलता अब ख़त्म हुई
अबला नारी खुद में भस्म हुई
कब तक सोती वो सजग हुई
हर इक दिल में अग्नि प्रकट हुई
भय की परछाई निकलनी चाहिए
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिए
कोई आश्वासन नहीं चाहिए
झूठे रहम की भीख नहीं चाहिए
अब आँख में आंसू नहीं आयेंगे
अपना हक खुद लड़ कर पायेंगे
ये ज्वाला खून में उबलनी चाहिए
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिए
लुट रही अस्मतें हो रहे बलात्कार
चारों और चीत्कार ही चीत्कार
नहीं कृष्ण धरा पर लेगा अवतार
नहीं कोई अब होगा चमत्कार
अब हर नारी में ही दुर्गा ढलनी चाहिए
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिए
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिए
****************************
दम तोडती संवेदनाएँ
सुना है
समाप्ति की कगार पर खड़ा
अपने ख़त्म होने का
विह्वल हो देख रहा
लोगों में
दम तोडती संवेदनाएँ
बीच सड़क, निर्वस्त्र पड़ी
घायल लड़की के
जिस्म से टपक रहे खून को
नज़रंदाज़ कर
आगे बढ़ गई थी तब
आज क्यों उबाल पर हैं
इस कायर समाज की
नपुंसक संवेदनाएँ
अबोध बालिका के साथ
बलात्कार की खबर को ,
सरसरी निगाह से पढ़कर
अखबार में छपी
अधनंगी तस्वीरों पर
आँखों से लार टपकाती
कुत्सित भावनाएँ
बीच सड़क, निर्वस्त्र पड़ी
घायल लड़की के
जिस्म से टपक रहे खून को
नज़रंदाज़ कर
आगे बढ़ गई थी तब
आज क्यों उबाल पर हैं
इस कायर समाज की
नपुंसक संवेदनाएँ
अबोध बालिका के साथ
बलात्कार की खबर को ,
सरसरी निगाह से पढ़कर
अखबार में छपी
अधनंगी तस्वीरों पर
आँखों से लार टपकाती
कुत्सित भावनाएँ
खाने की मेज़ पर ,
जायकों के बीच
जायकों के बीच
टी.बी. पर आते समाचारों में
बम धमाके में घायल हुए
लोगों की चीखों को
निर्मम हो सुन रहीं
बहरी संवेदनाएँ
सड़क पर पड़े
घायल अधमरे इंसान के
घायल अधमरे इंसान के
चारों ओर इकट्ठे हुजूम में
किसी एक हाथ के बढ़ने के इंतज़ार में
आँख मूँद रही ज़िन्दगी के साथ
अंतिम साँसें गिन रहीं
मरणासन्न संवेदनाएँ
मरणासन्न संवेदनाएँ
बम धमाके से उड़ते चीथड़ों पर ,
आग में जले सुलगते जिस्मों पर,
निज क्षुद्र स्वार्थ की रोटियां सेकते नेताओं की
शनिवार, 22 दिसंबर 2012
गुरुवार, 13 दिसंबर 2012
नारी विमर्श की व्यथा कथा
जिसे अपने वजूद को संसार में लाने के लिये जीने
से पहले ही हर साँस के लिये संघर्ष करना पड़े ! जिसे बचपन अपने माता पिता और बड़े
भाइयों के कठोर अनुशासन और प्रतिबंधों में और विवाह के बाद ससुराल में पति की अर्धांगिनी
या सहचरी बन कर नहीं वरन सारे परिवार की दासी और सेविका बन कर जीने के लिये विवश
होना पड़े वो भी इस हद तक कि विधवा हो जाने पर उसे जीते जी पति के साथ उसकी चिता के
हवाले कर परलोक तक की यात्रा में उसकी अनुगामिनी बनने के लिये मजबूर कर दिया जाये उस
नारी के विमर्श की कथा व्यथा मैं क्या सुनाऊँ ! वह ज़िंदा ज़रूर है, साँस भी ले रही
है लेकिन हर पल ना जाने कितनी मौतें मरती है ! ऐसी बातें जब लोग सुनते हैं तो कहते
हैं ये सब तो बढ़ा चढ़ा कर कही गयी बातें हैं ! अब तो बहुत सुधार आ गया है ! जी हाँ सुधार
और बदलाव के नाम पर इतना परिवर्तन ज़रूर आया है कि विधवा हो जाने पर पहले स्त्री को
ज़बर्दस्ती पति के साथ जीते जी ज़िंदा जला कर उसे सती घोषित कर दिया जाता था अब उसे
धर्म कर्म के नाम पर वृन्दावन, काशी, बनारस के विधवा आश्रमों में नर्क से भी बदतर
ज़िंदगी जीने के लिये घर से निष्कासित कर दिया जाता है ! जिनके जीवन की दुखद गाथा से
अमेरिका की मशहूर टॉक शो होस्ट ओपरा विनफ्रे इतनी द्रवित हुईं कि वे सारी दुनिया
को उसे सुनाने के लिये अपनी डायरी में नोट कर अमेरिका तक ले गयी हैं !
जीवनपर्यंत नारी को संघर्ष ही तो करना पड़ता है !
सबसे पहले तो जन्म लेने के लिये संघर्ष ! अगर समझदार दर्दमंद और दयालु माता पिता
मिल गये तो इस संसार में आँखें खोलने का सौभाग्य उसे मिल जाएगा वरना जिस कोख को
भगवान ने उसे जीवन देने के लिये चुना वही कोख उसके लिये कब्रगाह भी बन सकती है !
जन्म ले भी लिया तो लड़की होने की वजह से घर में बचपन से ही भेदभाव की शिकार बनती
है ! बेटा ‘कुलदीपक’ जो होता है बेटी तो ‘पराया धन’ होती है, एक
‘बोझ की गठरी’ ! मध्यम वर्ग में, जहाँ परिवार में धन की आपूर्ति सीमित होती है,
बेटों की तुलना में बेटियों को हमेशा दोयम दर्ज़े की ज़िंदगी जीनी पड़ती है ! फल-दूध,
मेवा-मिठाई, शौक-फैशन, खेल-खिलौने, शिक्षा-दीक्षा सभी पर पहला अधिकार परिवार के
‘कुलदीपकों’ का होता है ! बचा खुचा बेटियों के नसीब में आता है ! शहरों में पले
बढ़े और आधुनिकता व पाश्चात्य सभ्यता का रंगीन चश्मा सदा आँखों पर चढ़ाये रखने वाले
चंद पढ़े लिखे, संपन्न और शिक्षित लोगों के गले के नीचे यह बात नहीं उतरती है कि
लड़कियों के साथ ऐसा भेदभाव होता है लेकिन जो भुक्त भोगी हैं ज़रा कभी उनकी आपबीती भी
तो सुनिये ! भारत के गाँवों में आज भी यही मानसिकता दृढ़ता से कायम है और यह भी
उतना ही सच है कि भारत की ८०% जनसंख्या गाँवों में ही रहती है ! आज भी वहाँ स्त्री
का दर्ज़ा घर में नौकरानी से बड़ा नहीं है ! छोटी-छोटी गलतियों पर उसे रूई की तरह
धुन दिया जाता है, मार पीट कर घर से निकाल दिया जाता है, घर वालों की फरमाइशों को
पूरा करने के लिये उससे उम्मीद की जाती है कि वह अपने मायके वालों पर दबाव बनाये
और समय-समय पर ससुराल वालों की ज़रूरत के अनुसार उनसे पैसा बटोर कर लाती रहे ! ऐसा
ना कर पाने पर उसके शरीर पर मिट्टी का तेल डाल उसे ज़िंदा आग के हवाले कर दिया जाता
है ! क्या प्रतिदिन समाचार पत्र ऐसी ख़बरों से रंगे नहीं मिलते ? आज भी उससे इस तरह
के सवाल पूछे जाते हैं.......
“हाय
तुम औरत होकर अखबार पढ़ती हो ?”
“हाय
तुम औरत होकर ताश खेलती हो ?”
“हाय
तुम औरत होकर मर्दों की तरह पतलून पहनती हो ?”
“क्या
करोगी इतना पढ़ लिख कर ? ससुराल जाकर सम्हालना तो चौका चूल्हा ही है !”
आज भी यहाँ स्त्री को प्रेम करने का अधिकार नहीं
है ! अंतर्जातीय सम्बन्ध जोड़ने के दंडस्वरूप उसे सरे आम मौत के घाट उतार दिया जाता
है और सारा समाज मूक तमाशबीन बन इस अन्याय को घटित होते देखता रहता है !
शहरों में जिन स्त्रियों ने ये बाधाएं पार कर ली
हैं वे सडकों पर, मेट्रोज में ऑफिस में अलग तरह की मानसिक हिंसा और प्रताड़ना का
शिकार हो रही हैं ! उनकी उपलब्धियों को नकारा जाता है ! उनकी तरक्की को गलत तरीके
से हासिल की गयी सफलता के रूप में सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती ! उनके
चरित्र पर उंगलियाँ उठाई जाती हैं ! उन्हें उपभोग की वस्तु मान हेय दृष्टि से देखा
जाता है और आये दिन उन्हें लोगों की काम वासना और लोलुपता का शिकार होना पड़ता है !
मैंने कई कुँवारी लड़कियों और कम उम्र की विधवा महिलाओं को सिन्दूर लगा कर नौकरी के
लिये जाते हुए देखा है ! गले में मंगलसूत्र और माँग में भरा हुआ सिन्दूर आज भी स्त्री
के लिये रक्षा कवच का प्रतीक बने हुए हैं ! सोचिये नारी कहाँ स्वतंत्र और आत्म
निर्भर हुई है !
नारी इन सभी विमर्शों को सदियों से झेलती आ रही
है और सभी प्रतिकूल परिस्थितियों में कठिन संघर्ष करते हुए वह खामोशी से स्वयं को
सिद्ध करने में लगी हुई है लेकिन बचे हुए लोग भी कब उसकी उपलब्धियों का निष्पक्ष
होकर आकलन कर पायेंगे यह देखना बाकी है ! आज वर्षों पहले इसी विषय पर लिखी अपनी एक
रचना यहाँ उद्धृत कर रही हूँ ! आप भी देखिये ! शायद आपको भी पसंद आये !
तुम क्या जानो
रसोई से बैठक तक ,
घर से स्कूल तक ,
रामायण से अखबार तक
मैने कितनी आलोचनाओं का ज़हर पिया है
तुम क्या जानो !
करछुल से कलम तक ,
बुहारी से ब्रश तक ,
दहलीज से दफ्तर तक
मैंने कितने तपते रेगिस्तानों को पार किया है
तुम क्या जानो !
मेंहदी के बूटों से मकानों के नक्शों तक ,
रोटी पर घूमते बेलन से कम्प्यूटर के बटन तक ,
बच्चों के गड़ूलों से हवाई जहाज़ की कॉकपिट तक
मैंने कितनी चुनौतियों का सामना किया है
तुम क्या जानो !
जच्चा सोहर से जाज़ तक ,
बन्ना बन्नी से पॉप तक ,
कत्थक से रॉक तक
मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है
तुम क्या जानो !
सड़ी गली परम्पराओं को तोड़ने के लिये ,
बेजान रस्मों को उखाड़ फेंकने के लिये ,
निषेधाज्ञा में तनी रूढ़ियों की उँगली मरोड़ने के लिये
मैने कितने सुलगते ज्वालामुखियों की तपिश को बर्दाश्त किया है
तुम क्या जानो !
आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर
प्रतियोगिताओं की कसौटी पर घिस कर, निखर कर
कंचन सी कुंदन सी अपरूप दपदपाती
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे सामने
अजेय, अपराजेय, दिग्विजयी !
मुझे इस रूप में भी तुम जान लो
पहचान लो !
बन्ना बन्नी से पॉप तक ,
कत्थक से रॉक तक
मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है
तुम क्या जानो !
सड़ी गली परम्पराओं को तोड़ने के लिये ,
बेजान रस्मों को उखाड़ फेंकने के लिये ,
निषेधाज्ञा में तनी रूढ़ियों की उँगली मरोड़ने के लिये
मैने कितने सुलगते ज्वालामुखियों की तपिश को बर्दाश्त किया है
तुम क्या जानो !
आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर
प्रतियोगिताओं की कसौटी पर घिस कर, निखर कर
कंचन सी कुंदन सी अपरूप दपदपाती
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे सामने
अजेय, अपराजेय, दिग्विजयी !
मुझे इस रूप में भी तुम जान लो
पहचान लो !
मुझे पूरी आशा है कि वह सुबह भी कभी तो आयेगी जब
नारी विमर्श की इस करुण कथा का सुखान्त आयेगा और वह अपने लिये एक अनुकूल वातावरण
का निर्माण कर पायेगी, घर परिवार में, समाज में और अपने कार्य स्थल पर अपने लिये एक
सम्मानपूर्ण स्थान पर साधिकार बैठने का दुर्लभ स्वप्न साकार कर पायेगी और सारे
संसार को अपने विजयी विराट स्वरुप के दर्शन करा चमत्कृत कर देगी ! यह भारतीय समाज
की आम स्त्री का प्रतिबिम्ब है ! इनमें कई सौभाग्यशाली स्त्रियाँ ऐसी भी होंगी
जिन्हें अपवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है यह कथा उनकी नहीं है ! क्षमा याचना के
साथ निवेदन है कि किसीको ठेस पहुँचाना इस आलेख का उद्देश्य नहीं है !
साधना वैद
बुधवार, 12 दिसंबर 2012
Mayka
सोफे पर पीठ टिकाये निशा ने आँखे मूँद ली . पर आँखे मूँद लेने से मन सोचना तो बंद नही करता न . मन की गति पवन की गति से भी तेज होती हैं . एक पल मैं यहाँ तो दुसरे ही पल सात समंदर पार .,
एक पल मैं अतीत के गहरे पन्नो की परते उधेड़ कर रख देती हैं तो दुसरे ही पल मैं भविष्य के नए सपने भी देखना शुरू कर देती हैं . निशा का मन भी उलझा हुआ था अतीत के जाल में . तभी फ़ोन की घंटी बजी
" हेल्लो "
"हाँ जी बोल रही हूँ "
"जी"
"जी "
" जी अच्छा"
" में उनको कह दूँगी "
"आपने मुझसे कह दिया तो मैं सब इंतजाम कर दूँगी ""
"विश्वास कीजिये मैं आप को अच्छे से अटेंड करुँगी आप आये तो घर "
" यह तो शाम को ही घर आएंगे इनका सेल फ़ोन भी घर पर रह गया हैं "
"आप शाम को 7 बजे के बाद दुबारा फ़ोन कर लीजियेगा "
"जी नमस्ते "
फ़ोन रखते ही पहले से भारी मन और भी व्यथित हो उठा एक नारी जितना भी कर ले पर उसकी कोई कदर नही होती हैं सुबह सुनील से निशा की बहस भी उसकी बहन को लेकर हुई थी यह पुरुष लोग अपने रिश्तो के प्रति कितने सचेत होते हैं ना स्त्री के लिए घर आने वाले सब मेहमान एक से होते हैं परन्तु पुरुषो के लिय अपने परिवार के सामने उसकी स्त्री भी कुछ नही होती,न ही अपना घर , खाने के स्पेशल व्यंजन होने चाहिए , पैसे पैसे को दाँत से पकड़ने वाला पति तब धन्ना सेठ बन जाता हैं पत्नी दिन भर खटती रहे पर उसपर अपने परिवार के सामने एकाधिकार एवेम आधिपत्य दिखाना पुरुष प्रवृत्ति होती हैं
सुनील की बहन रेखा सर्दी की छुट्टियाँ बीतने के लिय उनके शहर आने वाली थी सुनील चाहता था कि उनका कमरा एक माह के लिए उनकी बहन को दे दिया जाए निशा इस बात के लिए राजी नही थी पिछली बार भी दिया था उसने अपना कमरा दीदी को रहने के लिए .....
दिन भर रजाई में पड़े रहना पलंग के नीचे मूंगफली के छिलके , झूठे बर्तन , गंदे मोज़े निशा का मन बहुत ख़राब होता था काम वाली बाई भी उनके तीखे बोलो की वज़ह से उस कमरे की सफाई करने से कतराती थी . निशा के लिए सुबह स्नान के लिए अपने एक जोड़ी कपडे निकलना भी मुश्किल हो गया था तब .. उनके जाने के बाद जब निशा ने अपना कमरा साफ किया तो तब जाना था उसके कमरे से अनेक छोटी छोटी चीज़े गायब थी उसके कई कपडे , बिँदिया , पलंग के बॉक्स से चादरे ....
मन खट्टा हो गया था उसका पिछले बरस कि अबकी बार आएँगी तो इनको अपना कमरा बिलकुल नही दूँगी सुनील मान लेने को तैयार ही न था इस बार उनकी बहन छोटे कमरे में रहे .
" निशा का मन अतीत में जाता हैं अक्सर . मायका तो उसका भी हैं वोह कभी दो दिन से ज्यादा के लिए नही गयी सुनील का कहना हैं ....
".रही थी न 22 साल उस घर में
अब भी तुम्हारा मन वहां ही क्यों रमता है ?
अपना घर बनाने की सोचो बस !!
अब यही हैं तुम्हारा घर ..."
अब .जब भी जाती हैंमायके तो अजनबियत का अहसास रहता हैं वहां , माँ बाबूजी उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहा उनके शब्दों का कोई मोल नही अब , जैसा बन जाता हैं खा लेती हैं निशा . बच्चे अगर जरा भी नखरे करे उनको आँखे तरेर कर चुप करा देती हैं चलते हुए माँ मुठ्ठी में बंद कर के कुछ रुपये थमा देती हैं और एक शगुन का लिफाफा 4 भाइयो की बहन को कोई एक भाई " हम सबकी तरफ से " कहकर थमा देता हैं ............न कुछ बोलने की गुंजाईश होती हैं न इच्छा .
किस्मत वाली होत्ती हैं न वोह लडकिया जिनको मायका नसीब होता हैं जिनके मायके आने पर खुशिया मनाई जाती हैं , माँ की आँखों में परेशानी के डोरे नही खुशी के आंसू होते हैं
टी वी पर सुधांशु जी महाराज बोल रहे थे बहनों को जो मान -सम्मान मिलता हैं जो नेग मिलता हैं उसकी भूखी नही होती वोह बस एक अहसास होता हैं कि इस घर पर आज भी मेरा र में आज भी हक हैं
निशा ने झट से आंसू पोंछे , फ़ोन उठाकर सुनील को उनके दूकान के नंबर पर काल किया
"सुनो जी , बाजार से गाजर लेते आना , निशा दी कल शाम की ट्रेन से आ रही हैं गाजर का हलवा बना कर रख दूँगी उनके चुन्नू को बहुत पसंद हैं "
कमरे की चादर बदलते हुए निशा सोचने लगी ना जाने रेखा दीदी ससुराल में किन परिस्तिथियों में रहती होगी कैसे कैसे मन मारती होगी छोटी छोटी चीजो के लिए . शायद यहाँ आकर उस पर अपना आधिपत्य दिखा कर उनका स्व संतुष्ट होता होगा . कम से कम किसी को तो मायका जाना सुखद लगे और खुश रहे उसके मन का रीता कोना !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
नीलिमा शर्मा
सोमवार, 10 दिसंबर 2012
''ऐसी बात है तो मना कर दो !'' -लघु कथा
माननीय राज्यपाल विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उपस्थित छात्र-छात्राओं को ''बिना दहेज़ -विवाह ''करने की शपथ दिला रहे थे .उनके कोट की अगली जेब में रखा उनका मोबाइल तभी बज उठा .शपथ -ग्रहण पूरा हुआ तो उन्होंने मोबाइल निकालकर देखा .कॉल घर से उनकी धर्मपत्नी जी की थी .उन्होंने खुद घर का नंबर मिलाया और धीरे से पूछा -''क्या कोई जरूरी बात थी ?''धर्मपत्नी जी बोली -'' हाँ ! वे गुप्ता जी आये थे अपनी पोती का रिश्ता लेकर हमारे राकेश के बेटे सूरज के लिए .कह रहे थे पांच करोड़ खर्च करने को तैयार हैं .मैंने कहा इतने का तो उसे साल भर का पैकेज ही मिल जाता है .अब बताओ क्या करूँ ?''राज्यपाल जी ने कहा -''ऐसी बात है तो मना कर दो !'' सामने सभागार में बैठे छात्र-छात्रागण माननीय द्वारा दिलाई गयी शपथ के बाद करतल ध्वनि द्वारा उनको सम्मान प्रदान कर रहे थे .
शिखा कौशिक 'नूतन '
शनिवार, 8 दिसंबर 2012
सोनिया जी को जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनायें !
सोनिया जी को जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनायें !
२१
मई १९९१ की रात्रि को जब तमिलनाडु में श्री पेराम्बुदूर में हमारे
प्रिय नेता राजीव गाँधी जी की एक बम विस्फोट में हत्या कर दी गयी वह
क्षण पूरे भारत वर्ष को आवाक कर देने वाला था .हम
इतने व्यथित थे.... तब उस स्त्री के ह्रदय की वेदना को समझने का
प्रयास करें जो अपना देश ..अपनी संस्कृति और अपने परिवारीजन को छोड़कर
यहाँ हमारे देश में राजीव जी की सहगामिनी -अर्धांगिनी बनने आई थी .मैं
बात कर रही हूँ सोनिया गाँधी जी की .निश्चित रूप से सोनिया जी के लिए वह क्षण विचिलित कर देने वाला था -
''एक हादसे ने जिंदगी का रूख़ पलट दिया ;
जब वो ही न रहा तो किससे करें गिला ,
मैं हाथ थाम जिसका आई थी इतनी दूर ;
वो खुद बिछड़ कर दूर मुझसे चला गया .''
सन १९८४ में जब इंदिरा जी की हत्या की गयी तब सोनिया जी ही थी जिन्होंने
राजीव जी को सहारा दिया पर जब राजीव जी इस क्रूरतम हादसे का शिकार हुए तब
सोनिया जी को सहारा देने वाला कौन था ?दिल को झंकझोर कर रख देने वाले इस
हादसे ने मानो सोनिया जी का सब कुछ ही छीन लिया था .इस हादसे को झेल जाना
बहुत मुश्किल रहा होगा उनके लिए .एक पल को तो उन्हें यह बात कचोटती ही
होगी कि-''काश राजीव जी उनका कहना मानकर राजनीति में न आते ''पर
....यह सब सोचने का समय अब कहाँ रह गया था ?पूरा देश चाहता था कि
सोनिया जी कॉग्रेस की कमान संभालें लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया .२१
वर्षीय पुत्र राहुल व् 19 वर्षीय पुत्री प्रियंका को पिता की असामयिक मौत के हादसे की काली छाया से बाहर निकाल लाना कम चुनौतीपूर्ण नहीं था .
अपने
आंसू पीकर सोनिया जी ने दोनों को संभाला और जब यह देखा कि कॉग्रेस पार्टी
कुशल नेतृत्व के आभाव में बिखर रही है तब पार्टी को सँभालने हेतु आगे
आई .२१ मई १९९१ के पूर्व के उनके जीवन व् इसके बाद के जीवन में अब ज़मीन
आसमान का अंतर था .जिस राजनीति में प्रवेश करने हेतु वे राजीव जी को
मना करती आई थी आज वे स्वयं उसमे स्थान बनाने हेतु संघर्ष शील थी
.क्या कारण था अपनी मान्यताओं को बदल देने का ?यही ना कि वे जानती थी कि
वे उस परिवार का हिस्सा हैं जिसने देश हित में अपने प्राणों का बलिदान कर
दिया .कब तक रोक सकती थी वे अपने ह्रदय की पुकार को ? क्या हुआ जो आज
राजीव जी उनके साथ शरीर रूप में नहीं थे पर उनकी दिखाई गयी राह तो सोनिया
जी जानती ही थी .
दूसरी ओर विपक्ष केवल एक आक्षेप का सहारा लेकर भारतीय जनमानस में उनकी गरिमा को गिराने हेतु प्रयत्नशील था .वह आक्षेप था
कि-''सोनिया एक विदेशी महिला हैं '' . सोनिया जी के सामने चुनौतियाँ ही
चुनौतियाँ थी .यह भी एक उल्लेखनीय तथ्य है कि जितना संघर्ष सोनिया जी ने
कॉग्रेस को उठाने हेतु किया उतना संघर्ष नेहरू-गाँधी परिवार के किसी
अन्य सदस्य को नहीं करना पड़ा होगा .
सोनिया
जी के सामने चुनौती थी भारतीयों के ह्रदय में यह विश्वास पुनर्स्थापित
करने की कि -''नेहरू गाँधी परिवार की यह बहू भले ही इटली से आई है पर वह
अपने पति के देश हित हेतु राजनीति में प्रविष्ट हुई है ''.यह कहना
अतिश्योक्ति पूर्ण न होगा कि सोनिया जी ने इस चुनौती को न केवल स्वीकार
किया बल्कि अपनी मेहनत व् सदभावना से विपक्ष की हर चाल को विफल कर डाला .लोकसभा
चुनाव २००४ के परिणाम सोनिया जी के पक्ष में आये .विदेशी महिला के मुद्दे
को जनता ने सिरे से नकार दिया .सोनिया जी कॉग्रेस [जो सबसे बड़े दल के
रूप में उभर कर आया था ]कार्यदल की नेता चुनी गयी .उनके सामने
प्रधानमंत्री बनने का साफ रास्ता था पर उन्होंने बड़ी विनम्रता से इसे
ठुकरा दिया .कलाम साहब की हाल में आई किताब ने विपक्षियों के इस दावे को
भी खोखला साबित कर दियाकी कलाम साहब ने सोनिया जी को प्रधानमंत्री बनने से
रोका था .कितने
व्यथित थे सोनिया जी के समर्थक और राहुल व् प्रियंका भी पर सोनिया जी
अडिग रही .अच्छी सर्कार देने के वादे से पर वे पीछे नहीं हटी इसी का
परिणाम था की २००९ में फिर से जनता ने केंद्र की सत्ता की चाबी उनके हाथ
में पकड़ा दी .
विश्व की जानी मानी मैगजीन ''फोर्ब्स ''ने भी सोनिया जी का लोहा माना और उन्हें विश्व की शक्तिशाली महिलाओं में स्थान दिया -
7 | Sonia GandhiPresident |
सोनिया
जी पर विपक्ष द्वारा कई बार तर्कहीन आरोप लगाये जाते रहे हैं पर वे इनसे
कभी नहीं घबराई हैं क्योकि वे राजनीति में रहते हुए भी राजनीति नहीं करती
.वे एक सह्रदय महिला हैं जो सदैव जनहित में निर्णय लेती है .उनके कुशल
नेतृत्व में सौ करोड़ से भी ज्यादा की जनसँख्या वाला हमारा भारत देश विकास
के पथ पर आगे बढ़ता रहे बस यही ह्रदय से कामना है .आज महंगाई ,भ्रष्टाचार
के मुद्दे लेकर विपक्ष सोनिया जी को घेरे में तत्पर है पर वे अपने
विपक्षियों से यही कहती नज़र आती हैं-
''शीशे के हम नहीं जो टूट जायेंगें ;
फौलाद भी पूछेगा इतना सख्त कौन है .''
वास्तव में सोनिया जी के लिए यही उद्गार ह्रदय से निकलते हैं -''भारत की इस बहू में दम है .''
शिखा कौशिक
[विचारों का चबूतरा ]
गुरुवार, 6 दिसंबर 2012
शोध -माननीय कुलाधिपति जी पहले अवलोकन तो किया होता .
५
दिसंबर २०१२ दैनिक जागरण का मुख पृष्ठ चौधरी चरण सिंह विश्वविध्यालय के २४
वें दीक्षांत समारोह की अध्यक्षता कर रहे माननीय कुलाधिपति /उत्तर प्रदेश
के राज्यपाल बी.एल.जोशी के कथनों को प्रमुखता से प्रकाशित कर रहा था .एक ओर
जहाँ माननीय राज्यपाल महोदय ने युवाओं को दहेज़ जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ
आगे आने का आह्वान कर अपनी संवेदनशीलता का परिचय दिया वहीँ उन्होंने शोध के
सम्बन्ध में ''....लेकिन तमाम विश्वविद्यालयों में एक भी रिसर्च ऐसी
नहीं देखने को मिल रही जिसका हम राष्ट्रीय या वैश्विक स्तर पर गौरव के साथ
उल्लेख कर सकें .''कह अपने नितान्त असंवेदनशील होने का परिचय दिया है .
न्याय के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण कथन है ''कि भले ही सौ गुनाहगार छूट जाएँ किन्तु एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए .''मैंने शोधार्थियों के वर्तमान शोध में से केवल एक के शोध का अवलोकन किया है और उसके आधार पर मैं कह सकती हूँ कि माननीय कुलाधिपति महोदय का ये कथन उन शोधार्थियों के ह्रदय को गहरे तक आघात पहुँचाने वाला है जिन्होंने अपनी दिन रात की मेहनत से ये उपाधि प्राप्त की है .और जिस शोध का मैं यहाँ जिक्र कर रही हूँ उसके आधार पर मैं ये दावे के साथ कह सकती हूँ कि पी एच.डी.को लेकर जो सारे में ये फैला रहता है कि ये धन दौलत के बल पर हासिल कर ली जाती है यह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है बल्कि कुछ शोधार्थी हैं जो अपनी स्वयं की मेहनत के बलबूते इस उपाधि को धारण करते हैं न कि दौलत से खरीदकर .डॉ . शिखा कौशिक ने इस वर्ष चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से ''हिंदी की महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में स्त्री-विमर्श ''विषय पर पी एच.डी.की उपाधि प्राप्त की है और यदि कुलाधिपति महोदय इस शोध का अवलोकन करते तो शायद उनके मुखारविंद से ये कथन नहीं सुनाई देते .
६ अध्यायों में विस्तार से ,हिंदी उपन्यास में चित्रित परंपरागत नारी जीवन ,नारी जीवन की त्रासदी और विड्म्बनाएँ ,सुधारवादी आन्दोलन और नारी उत्थान ,समाज सुधार संस्थाओं का योगदान ,महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में चित्रित नारी की आर्थिक स्वाधीनता तथा घर बाहर की समस्या ,महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में चित्रित परिवार-संसद का विघटन ,विवाह संस्था से विद्रोह ,महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में राजनैतिक चेतना ;महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण ,महिला उपन्यासकरों के उपन्यासों में चित्रित कुछ अतिवादी और अराजकतावादी स्थितियां ,सामाजिक संबंधों में दरार और विश्रंखलता ,स्वछंद जीवन की प्रेरणा से पाशव जीवन की ओर प्रवाह ,मुस्लिम नारी समाज की भिन्न स्थिति का संत्रास आदि आदि -स्त्री विमर्श का जो शोध डॉ.शिखा कौशिक जी ने विभिन्न उपन्यासों ,पत्र-पत्रिकाओं के सहयोग से प्रस्तुत किया है वह सम्पूर्ण राष्ट्र में नारी के लिए गौरव का विषय है .संभव है कि अन्य और शोधार्थियों के शोध भी इस क्षेत्र में सराहना के हक़दार हों ,इसलिए ऐसे में सभी शोधों को एक तराजू में तौलना सर्वथा गलत है और इस सम्बन्ध में तभी कोई वक्तव्य दिया जाना चाहिए जब इस दिशा में खुली आँखों से कार्य किया गया हो अर्थात सम्बंधित शोधों का अवलोकन किया गया हो.ऐसे में मेरा कहना तो केवल यही है -
''कैंची से चिरागों की लौ काटने वालों ,
सूरज की तपिश को रोक नहीं सकते .
तुम फूल को चुटकी से मसल सकते हो ,
पर फूल की खुशबू समेट नहीं सकते .''
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
न्याय के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण कथन है ''कि भले ही सौ गुनाहगार छूट जाएँ किन्तु एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए .''मैंने शोधार्थियों के वर्तमान शोध में से केवल एक के शोध का अवलोकन किया है और उसके आधार पर मैं कह सकती हूँ कि माननीय कुलाधिपति महोदय का ये कथन उन शोधार्थियों के ह्रदय को गहरे तक आघात पहुँचाने वाला है जिन्होंने अपनी दिन रात की मेहनत से ये उपाधि प्राप्त की है .और जिस शोध का मैं यहाँ जिक्र कर रही हूँ उसके आधार पर मैं ये दावे के साथ कह सकती हूँ कि पी एच.डी.को लेकर जो सारे में ये फैला रहता है कि ये धन दौलत के बल पर हासिल कर ली जाती है यह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है बल्कि कुछ शोधार्थी हैं जो अपनी स्वयं की मेहनत के बलबूते इस उपाधि को धारण करते हैं न कि दौलत से खरीदकर .डॉ . शिखा कौशिक ने इस वर्ष चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से ''हिंदी की महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में स्त्री-विमर्श ''विषय पर पी एच.डी.की उपाधि प्राप्त की है और यदि कुलाधिपति महोदय इस शोध का अवलोकन करते तो शायद उनके मुखारविंद से ये कथन नहीं सुनाई देते .
६ अध्यायों में विस्तार से ,हिंदी उपन्यास में चित्रित परंपरागत नारी जीवन ,नारी जीवन की त्रासदी और विड्म्बनाएँ ,सुधारवादी आन्दोलन और नारी उत्थान ,समाज सुधार संस्थाओं का योगदान ,महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में चित्रित नारी की आर्थिक स्वाधीनता तथा घर बाहर की समस्या ,महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में चित्रित परिवार-संसद का विघटन ,विवाह संस्था से विद्रोह ,महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में राजनैतिक चेतना ;महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण ,महिला उपन्यासकरों के उपन्यासों में चित्रित कुछ अतिवादी और अराजकतावादी स्थितियां ,सामाजिक संबंधों में दरार और विश्रंखलता ,स्वछंद जीवन की प्रेरणा से पाशव जीवन की ओर प्रवाह ,मुस्लिम नारी समाज की भिन्न स्थिति का संत्रास आदि आदि -स्त्री विमर्श का जो शोध डॉ.शिखा कौशिक जी ने विभिन्न उपन्यासों ,पत्र-पत्रिकाओं के सहयोग से प्रस्तुत किया है वह सम्पूर्ण राष्ट्र में नारी के लिए गौरव का विषय है .संभव है कि अन्य और शोधार्थियों के शोध भी इस क्षेत्र में सराहना के हक़दार हों ,इसलिए ऐसे में सभी शोधों को एक तराजू में तौलना सर्वथा गलत है और इस सम्बन्ध में तभी कोई वक्तव्य दिया जाना चाहिए जब इस दिशा में खुली आँखों से कार्य किया गया हो अर्थात सम्बंधित शोधों का अवलोकन किया गया हो.ऐसे में मेरा कहना तो केवल यही है -
''कैंची से चिरागों की लौ काटने वालों ,
सूरज की तपिश को रोक नहीं सकते .
तुम फूल को चुटकी से मसल सकते हो ,
पर फूल की खुशबू समेट नहीं सकते .''
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
बुधवार, 5 दिसंबर 2012
इलेक्शन आने वाला है !
गुजरात वासियों को आज कल अपने घर के दरवाजों पर खट खट सुनाई दे सकती है...अरे भाई चुनाव जो पास हैं .अभी किसी ब्लॉग पर कार्टून देखा कि ''मोदी ४५ वर्षों से अपने घर नहीं गए पर वोटर कहता है हमारे यहाँ तो आये हैं ' चलिए जो भी है आप सभी इस रचना का आनंद ले और नेताओं की चिकनी चुपड़ी बातों पर न जाकर सही प्रत्याशी को वोट दे --
मेरे दरवाजे पर हुई थी खट खट
मैं चला खोलने उसको झट पट
वे खड़े हुए थे हाथ जोड़कर
मैं देख रहा था उन्हें चौककर
फिर समझ में आया ये सब
क्या गड़बड़झाला है ?
इलेक्शन आने वाला है !
इलेक्शन आने वाला है !
वे बोले हम हैं सेवक और तुम हो स्वामी
हम दीन हीन से भक्त ;तुम अंतर्यामी
वे झुके चरण छूने को ज्यों ही नीचे
मैं हटा बड़ी तेजी से थोडा पीछे
वे बोले हाथ तुम्हारे अब लाज बचाना है .
इलेक्शन आने वाला है !
इलेक्शन आने वाला है !
जो काम कहोगे सब कर देंगें
बर्तन मान्जेंगें ;कपडे धो देंगें
हम एक जात के ये भूल न जाना
बस नाम हमारे पर बटन दबाना
वोट मांगने का उनका अंदाज निराला है .
इलेक्शन आने वाला है !
इलेक्शन आने वाला है !
मैं बोला दूंगा वोट सोच समझ कर
जात धर्म से ऊपर उठकर
तुम तो करते हो झूठे वादे
नहीं रखते हो तुम नेक इरादे
जनता जीजा होती है और नेता साला है .
इलेक्शन आने वाला है !
इलेक्शन आने वाला है !
वे बोले लगता तुझे समझ न आया
तू नहीं जानता नेता की माया
तू न सुधरा तो उठवा लेंगें
तेरी वोट खुद ही हम डलवा लेंगें
हम तन के उजले हैं पर मन तो काला है .
इलेक्शन आने वाला है !
इलेक्शन आने वाला है !
शिखा कौशिक
गुजरात वासियों को आज कल अपने घर के दरवाजों पर खट खट सुनाई दे सकती है...अरे भाई चुनाव जो पास हैं .अभी किसी ब्लॉग पर कार्टून देखा कि ''मोदी ४५ वर्षों से अपने घर नहीं गए पर वोटर कहता है हमारे यहाँ तो आये हैं ' चलिए जो भी है आप सभी इस रचना का आनंद ले और नेताओं की चिकनी चुपड़ी बातों पर न जाकर सही प्रत्याशी को वोट दे --
मेरे दरवाजे पर हुई थी खट खट
मैं चला खोलने उसको झट पट
वे खड़े हुए थे हाथ जोड़कर
मैं देख रहा था उन्हें चौककर
फिर समझ में आया ये सब
क्या गड़बड़झाला है ?
इलेक्शन आने वाला है !
इलेक्शन आने वाला है !
वे बोले हम हैं सेवक और तुम हो स्वामी
हम दीन हीन से भक्त ;तुम अंतर्यामी
वे झुके चरण छूने को ज्यों ही नीचे
मैं हटा बड़ी तेजी से थोडा पीछे
वे बोले हाथ तुम्हारे अब लाज बचाना है .
इलेक्शन आने वाला है !
इलेक्शन आने वाला है !
जो काम कहोगे सब कर देंगें
बर्तन मान्जेंगें ;कपडे धो देंगें
हम एक जात के ये भूल न जाना
बस नाम हमारे पर बटन दबाना
वोट मांगने का उनका अंदाज निराला है .
इलेक्शन आने वाला है !
इलेक्शन आने वाला है !
मैं बोला दूंगा वोट सोच समझ कर
जात धर्म से ऊपर उठकर
तुम तो करते हो झूठे वादे
नहीं रखते हो तुम नेक इरादे
जनता जीजा होती है और नेता साला है .
इलेक्शन आने वाला है !
इलेक्शन आने वाला है !
वे बोले लगता तुझे समझ न आया
तू नहीं जानता नेता की माया
तू न सुधरा तो उठवा लेंगें
तेरी वोट खुद ही हम डलवा लेंगें
हम तन के उजले हैं पर मन तो काला है .
इलेक्शन आने वाला है !
इलेक्शन आने वाला है !
शिखा कौशिक
मंगलवार, 4 दिसंबर 2012
जागरण जंक्शन फोरम से साभार
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क्या मातृत्व के नाम पर कोख का व्यापार है सेरोगेसी?
शिखा कौशिक
शनिवार, 1 दिसंबर 2012
गुरुवार, 29 नवंबर 2012
हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
शिखा कौशिक 'नूतन '
हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
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सोमवार, 26 नवंबर 2012
-आत्मशक्ति पर विश्वास
जीवन एक ऐसी पहेली है जिसके बारे में बात करना वे लोग ज्यादा पसंद करते हैं जिन्होंने कदम-कदम पर सफलता पाई हो.उनके पास बताने लायक काफी कुछ होता है. सामान्य व्यक्ति को तो असफलता का ही सामना करना पड़ता है.हम जैसे साधारण मनुष्यों की अनेक आकांक्षाय होती हैं. हम चाहते हैं क़ि गगन छू लें; पर हमारा भाग्य इसकी इजाजत नहीं देता.हम चाहकर भी अपने हर सपने को पूरा नहीं कर पाते .यदि मन की हर अभिलाषा पूरी हो जाया करती तो अभिलाषा भी साधारण हो जाती .हम चाहते है क़ि हमें कभी शोक ;दुःख ; भय का सामना न करना पड़े.हमारी इच्छाएं हमारे अनुसार पूरी होती जाएँ किन्तु ऐसा नहीं होता और हमारी आँख में आंसू छलक आते है. हम अपने भाग्य को कोसने लगते है.ठीक इसी समय निराशा हमे अपनी गिरफ्त में ले लेती है.इससे बाहर आने का केवल एक रास्ता है ---आत्मशक्ति पर विश्वास;------
राह कितनी भी कुटिल हो ;
हमें चलना है .
हार भी हो जाये तो भी
मुस्कुराना है;
ये जो जीवन मिला है
प्रभु की कृपा से;
इसे अब यूँ ही तो बिताना है.
रोक लेने है आंसू
दबा देना है दिल का दर्द;
हादसों के बीच से
इस तरह निकल आना है;
न मांगना कुछ
और न कुछ खोना है;
निराशा की चादर को
आशा -जल से भिगोना है;
रात कितनी भी बड़ी हो
'सवेरा तो होना है'.
शिखा कौशिक 'नूतन'
शुक्रवार, 23 नवंबर 2012
SALUTE SWAPNA
Swapna Augustine from Pothanicad, Kerala, was born without arms but She paints by using her toes . ♥ Hit Like and Salute her ♥Please Share If You Care For Others's photo. |
सोमवार, 19 नवंबर 2012
देह की सीमा से परे
देह की सीमा से परे
बन जाना चाहती हूँ
एक ख्याल
एक एहसास ,
जो होते हुए भी नज़र न आये
हाथों से छुआ न जाए
आगोश में लिया न जाए
फिर भी
रोम-रोम पुलकित कर जाए
हर क्षण
आत्मा को तुम्हारी
विभोर कर जाए
वक्त की सीमा से परे
बन जाना चाहती हूँ वो लम्हा
जो समय की रफ़्तार तोड़
ठहर जाए
एक - एक गोशा जिसका
जी भर जी लेने तक
जो मुट्ठी से
फिसलने न पाए
तड़पना चाहती हूँ
दिन - रात
सीने में
एक खलिश बन
समेट लेना चाहती हूँ
बेचैनियों का हुजूम
और फिर
सुकून की हसरत में
लम्हा लम्हा
बिखर जाना चाहती हूँ
बूँद नहीं
उसका गीलापन बन
दिल की सूखी ज़मीन को
भीतर तक सरसाना
हवा की छुअन बन
मन के तारों को
झनझना
चाहती हूँ गीत की रागिनी बन
होंठों पे बिखर - बिखर जाना
जिस्म
और जिस्म से जुड़े
हर बंधन को तोड़
अनंत तक ..........
असीम बन जाना
चाहती हूँ
बस......
यही चाहत
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