सूरज निकलने से
कर देता मना !
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काश अब्बा न जगाते
स्कूल जाने के लिए
रोज़ की तरह !
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काश स्कूल के लिए
तैयार होते समय
टूट जाता जूते का फीता
और बन जाता
न जाने का एक बहाना !
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काश अम्मी ही कह देती
क्या रोज़ रोज़ जरूरी है
स्कूल जाना !
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काश स्कूल में घुसने से पहले
आतंकियों के
कट जाते हाथ !
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काश उस दिन
ख़ुदा देता
मासूमों का साथ !
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काश न जाते
बच्चे स्कूल
और
गोलियों के जगह
बंदूकों से निकलते फूल !
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कुछ न हो सका
न हो पाया
कोई दुआ न हुई क़ुबूल
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दरिंदगी की भेंट
चढ़ गए
नन्हे मुन्ने रसूल !
शिखा कौशिक 'नूतन'
5 टिप्पणियां:
bahut hi hriday vidarak ghatna .bahut hi hriday ko chhune vale shabdon me varnan .
bahut hi hriday vidarak ghatna .bahut hi hriday ko chhune vale shabdon me varnan .
काश, इन घटनाओं को रोकना हमारे बस मे होता...!बहुत सुंदर रचना.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (21-12-2014) को "बिलखता बचपन...उलझते सपने" (चर्चा-1834) पर भी होगी।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
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