कोमल पुष्पों का हार नहीं ,
रसिक-नृप-दरबार नहीं ,
ये नूपुरों की झंकार नहीं ,
कविता मात्र श्रृंगार नहीं !
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कविता नहीं सीमित नख -शिख तक ,
नारी की चंचल -चितवन तक ,
षड-ऋतुओं के वर्णन तक ,
कामोद्दीपक भावों तक ,
प्रेमी-युगलों को हर्षाती ;
केवल मदमस्त फुहार नहीं !
कविता मात्र श्रृंगार नहीं !
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कविता-शिव का पर्याय है ,
शिव में ब्रह्माण्ड समाये है ,
वही सत्य है वही सुन्दर है ,
आनंद का यही उपाय है ,
मानवता के आदर्शों का
स्थायी दृढ़ आधार यही !
कविता मात्र श्रृंगार नहीं !
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वीरों में भर देती साहस ,
मातृ -भूमि हित मिट जाओ ,
मत करो पलायन डर कर तुम ,
भले रणभूमि में कट जाओ ,
वीरों के कर में है सजती ,
शत्रु-मर्दन तलवार यही !
कविता मात्र श्रृंगार नहीं !
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करुणा से ह्रदय द्रवित करती ,
प्रफुल्लित उर को कर देती ,
कविता में हास-रुदन दोनों ,
जीवन में रंग यही भरती ,
कविता नहीं होती मधुशाला ,
पावन गंगा -सम धार यही !
कविता मात्र श्रृंगार नहीं !
शिखा कौशिक 'नूतन '
3 टिप्पणियां:
very nice feeling about poem .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (03-11-2014) को "अपनी मूर्खता पर भी होता है फख्र" (चर्चा मंच-1786) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कविता के लिए अपना दायित्व पूरा करने को 'युग की हुँकार'बनने की भूमिका निभाना भी आवश्यक है .
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