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बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

इंसा को इंसा से जुदा किया..

इंसा को इंसा से जुदा किया
बेजां बुत को खुदा किया
ढूंढता रहा जो तेरे दिल में ठिकाना
उसे पत्थर की हवेलियों में बिठा दिया

पैरो तले दी जिसने ज़मी
सर पे दी छत एक आसमां की
पहले टुकड़े टुकड़े की वो ज़मी उसकी
फिर टुकड़े आसमां किया
उठा कर कहीं मंदिर कही मस्जिद की दीवारे
टुकड़े टुकड़े फिर हमने वो ही खुदा किया

हैरां है परेशां है वो इस कदर ये सोच कर
कि उसने तो बनाई थी एक जात इंसा की मगर
कैसे बने ये सिख और कैसे हुए इसाई
किसने इन्हें हिन्दू और मुसलमां किया

कभी धर्म कभी मजहब कभी जात पर लड़ा किये
अक्सर यूँ ही बेवजह बात बेबात पर लड़ा किये
लेकर नाम उसका बहाया खूं उसके ही बंदो का
और खुद खुदा होने का गुमाँ किया

कितने नाजों से रची थी कायनात उसने
आबोहवा में घोले थे उल्फत के जज्बात उसने
फिर कैसे बदला ये मंज़र
घोला किसने इन फिज़ाओ में ये नफरत का ज़हर
और उसकी इस हंसी कायनात को खूं से नहला दिया!

शिल्पा भारतीय "अभिव्यक्ति"

2 टिप्‍पणियां:

Darshan jangra ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - बृहस्पतिवार- 30/10/2014 को
हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 41
पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,

Shikha Kaushik ने कहा…

sarthak prastuti hetu aabhar