ठिठुर-ठिठुर काली भई तुलसी
हरा रूप जब भया कुरूप
आँगन में तब आई धूप !
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कातिल शीत हवाएं आकर
चूस गयी तन का पीयूष
आँगन में तब आई धूप !
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गर्म शॉल लगें सूती चादर
कैसे काटें माघ व् पूस
आँगन में तब आई धूप !
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सब जन कांपें हाड़ हाड़
हो निर्धन या कोई भूप
आँगन में तब आई धूप !
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हिम सम लगे सारा जल ,
क्या जोहड़ नहर व् कूप ,
आँगन में तब आई धूप !
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चहुँ ओर कोहरे की चादर ,
बना पहेली एक अबूझ ,
आँगन में तब आई धूप !
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हुआ निठल्ला तन व् मन ,
गई अंगुलियां सारी सूज ,
आँगन में तब आई धूप !
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पाले ने हमला जब बोला ,
बगिया सारी गई सूख ,
आँगन में तब आई धूप !
शिखा कौशिक 'नूतन'
4 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (06-01-2014) को "बच्चों के खातिर" (चर्चा मंच:अंक-1484) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर व् सार्थक अभिव्यक्ति .नव वर्ष २०१४ की हार्दिक शुभकामनाएं
bahut khoob likha hai Shalini ji...
और इस धूप ने कितनो का मन हर लिया...तन को भाती है यही धूप...
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