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गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

फितरतन इंसानियत के ये रक़ीब बनते जाते हैं .



खत्म कर जिंदगी देखो मन ही मन मुस्कुराते हैं ,
मिली देह इंसान की इनको भेड़िये नज़र आते हैं .

तबाह कर बेगुनाहों को करें आबाद ये खुद को ,
फितरतन इंसानियत के ये रक़ीब बनते जाते हैं .

फराखी इनको न भाए ताज़िर हैं ये दहशत के ,
मादूम ऐतबार को कर फ़ज़ीहत ये कर जाते हैं .

न मज़हब इनका है कोई ईमान दूर है इनसे ,
तबाही में मुरौवत की सुकून दिल में पाते हैं .

इरादे खौफनाक रखकर आमादा हैं ये शोरिश को ,
रन्जीदा कर जिंदगी को मसर्रत उसमे पाते हैं .

अज़ाब पैदा ये करते मचाते अफरातफरी ये ,
अफ़सोस ''शालिनी''को ये खत्म न ये हो पाते हैं .

शब्दार्थ :-फराखी -खुशहाली ,ताजिर-बिजनेसमैन ,
मादूम-ख़त्म ,फ़ज़ीहत -दुर्दशा ,मुरौवत -मानवता ,
शोरिश -खलबली ,रंजीदा -ग़मगीन ,मसर्रत-ख़ुशी ,
अज़ाब -पीड़ा-परेशानी .

शालिनी कौशिक
[कौशल ]

4 टिप्‍पणियां:

Sunil Kumar ने कहा…

bahut khubsurat asar kar rahi dilo dimag par

Shikha Kaushik ने कहा…

मासूमों के घर उजाड़ने वाले इन वहशी दरिंदों का अंत होना ही चाहिए .सार्थक प्रस्तुति .आभार

kavita verma ने कहा…

inhe khatm karne ke liye shikar ko hi vidroh karna hoga..bhavpoorn rachna..

रचना दीक्षित ने कहा…

न मज़हब इनका है कोई ईमान दूर है इनसे ,
तबाही में मुरौवत की सुकून दिल में पाते हैं .

सच है इन दहशत गार्डों का कोई मजहव नहीं है. ये तो इंसानियत के ही दुश्मन हैं.