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रविवार, 29 जून 2014
गुरुवार, 26 जून 2014
हे प्रभु ! कैसे ये खेल ?
जन्म के ही साथ मृत्यु जोड़ देता है ;
हे प्रभु ! ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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माता -पिता की आँखों क़ा जो है उजाला ;
अंधे की लाठी और घर क़ा जो सहारा ;
ऐसे ''श्रवण '' को भी निर्मम छीन लेता है.
हे प्रभु !ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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हाथ में मेहदी रचाकर ,ख्वाब खुशियों के सजाकर ,
जो चली फूलों पे हँसकर ,मांग में सिन्दूर भरकर ,
ऐसी सुहागन क़ा सुहाग छीन लेता है .
हे प्रभु ! ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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जन्म देते ही सदा को सो गयी ,
चूम भी न पाई अपने लाल को ,
नौ महीने गर्भ में रखा जिसे ,
देख भी न पाई एक क्षण उसे ,
दुधमुहे बालक की जननी छीन लेता है .
हे प्रभु ! ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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बांहों क़ा झूला झुलाता ,घोडा बनकर जो घुमाता ,
दुनिया क्या है ? ये बताता ,गोद में हँसकर उठाता ,
ऐसे पिता क़ा साया सिर से छीन लेता है .
हे प्रभु ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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याद में आंसू बहाता ,राह में पलके बिछाता ,
हाथ में ले हाथ चलता ,तारे तोड़ कर वो लाता ,
ऐसे प्रिय को क्यूँ प्रिया से छीन लेता है .
हे प्रभु ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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छोड़कर सुख के महल जो दुःख के बन में साथ थी ,
जिसके ह्रदय में हर समय श्री राम नाम प्यास थी ,
ऐसी सिया को राम से क्यूँ छीन लेता है ?
हे प्रभु ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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शिखा कौशिक 'नूतन'
मंगलवार, 24 जून 2014
स्पंदन
दीवार से नीचे लटकती
''बेल ''
कभी स्थिर -कभी हवा
के झोंके से चंचल,
छोटे -बड़े पत्ते
मानों उसकी अभिलाषाओं
के प्रतीक ,
लम्बी लम्बी टहनियां
मानों उसकी जीवन
शक्ति क़ा संकेत ;
जब हिलती हैं
तो लगता है कि
मुस्कुरा रही हैं ;
जब ठहरी रहती हैं
तो मानो उदास हो जाती हैं ;
क्या इनमे भी जीवन है ?
ये एक जिज्ञासा सिर उठाती है ;
जो तुरंत ही शांत
भी हो जाती है ;
जब बेल की एक टहनी
लचक कर मेरे चेहरे
से छू जाती है ;
मानो यह कह जाती
है -हम भी तेरे जैसे ही है
''हम में भी है स्पंदन ''
शिखा कौशिक 'नूतन'
गुरुवार, 19 जून 2014
खंडित आनंद
सब विश्वास हो जाते हैं चकनाचूर ,
निरर्थक हो जाती हैं प्रार्थनाएं ,
टूट जाता है मनोबल ,
आस्थाओं में पड़ जाती है दरार ,
खाली-खाली हो जाता है ह्रदय ,
भर आते हैं नयन ,
मान्यताएं लड़खड़ा जाती हैं ,
उखड़ जाते हैं आशाओं के स्तम्भ ,
झुलस जाती है हर्ष की फुलवारी ,
वाणी हो जाती है अवाक,
बुद्धि हो जाती है सुन्न ,
मनोभावों की अभिव्यक्ति
हो जाती है असंभव ,
अब भी जिज्ञासा है शेष
ये जानने की कि कब ?
तो सुनो !
ऐसा होता है तब
जब खो देते हैं हम
अपने प्रिय-जन को
सदा के लिए ,
जो देह-त्याग कर
स्वयं तो हो जाता है
अनंत में लीन
और खंड-खंड
कर जाता है हमारा
आत्मिक-आनंद
जो कदापि नहीं हो सकता
पुनः अखंड !!
शिखा कौशिक 'नूतन'
मंगलवार, 17 जून 2014
'कलम क्या उसकी खाक लिखेगी !!'
नहीं हादसे झेले जिसने ,
आहें नहीं भरी हैं जिसने ,
अगर थाम ले कलम हाथ में ,
कलम क्या उसकी खाक लिखेगी !!
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पलकें न भीगीं हो जिसकी ,
आंसू का न स्वाद चखा हो ,
अगर लगे दर्द-ए-दिल गानें ,
दिल पर कैसे धाक जमेंगी !!
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नहीं निवाले को जो तरसा ,
नहीं लगी जिस पेट में आग ,
बासी रोटी खा लेने को ,
आंतें उसकी क्यों उबलेंगी !!
शिखा कौशिक 'नूतन '
रविवार, 15 जून 2014
जब तक मौत नहीं आती
साथ
हर दुःख को हम सह जाते हैं;
आंसू अपने पी जाते हैं ;
जब तक मौत नहीं आती
जीवन का साथ निभाते हैं .
......................................
......................................
हर दिन आती हैं बाधाएँ;
पैने कंटक सी ये चुभ जाएँ;
दुष्ट निराशा तेज ताप बन
आशा-पुष्पों को मुरझाएं;
फिर भी मन में धीरज धरकर
पग-पग बढ़ते जाते हैं .
जब तक .......
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...................................
पल-पल जिनके हित चिंतन में
उषा-संध्या-निशा बीतती ;
वे अपने धोखा दे जाते
घाव बड़े गहरे दे जाते ,
भ्रम में पड़कर ;स्वयं को छलकर
नया तराना गाते हैं .
जब तक मौत .....
..................................
..................................
अपमान गरल पी जाते हैं;
कुछ कहने से कतराते हैं ;
झूठ के आगे नतमस्तक हो
सच को आँख दिखाते हैं ;
आदर्शों का गला घोटकर
हम कितना इतराते हैं !
जब तक ......
शिखा कौशिक 'नूतन '
शनिवार, 14 जून 2014
HAPPY FATHER'S DAY
मेरे वालिद
ग़मों को ठोकरें....मेरे वालिद ने अपना नाम दिया |
ग़मों को ठोकरें मिटटी में मिला ही देती ,
मेरे वालिद ने आगे बढ़ के मुझे थाम लिया .
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मुझे वजूद मिला एक नयी पहचान मिली ,
मेरे वालिद ने मुझे जबसे अपना नाम दिया .
..........................................................
मेरी नादानियों पर सख्त हो डांटा मुझको;
मेरे वालिद ने हरेक फ़र्ज़ को अंजाम दिया .
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मेरी नादानियों पर सख्त हो डांटा मुझको;
मेरे वालिद ने हरेक फ़र्ज़ को अंजाम दिया .
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अपनी मजबूरियों को दिल में छुपाकर रखा ;
मेरे वालिद ने रोज़ ऐसा इम्तिहान दिया .
................................................................
खुदा का शुक्र है जो मुझपे की रहमत ऐसी ;
मेरे वालिद के दिल में मेरे लिए प्यार दिया .
शिखा कौशिक 'नूतन ‘
शनिवार, 7 जून 2014
क्रांति स्वर में ललकारें
छोड़ विवशता वचनों को
व्यवस्था -धार पलट डालें ;
समर्पण की भाषा को तज
क्रांति स्वर में ललकारें .
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छीनकर जो तेरा हिस्सा
बाँट देते है ''''अपनों '''' में
लूटकर सुख तेरा सारा
लगाते सेंध ''सपनों'' में ;
तोड़ कर मौन अब अपना
उन्हें जी भर के धिक्कारें .
समर्पण की भाषा को तज
क्रांति स्वर में ललकारें .
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हमी से मांगकर वोटें
जो सत्तासीन हो जाते ;
भूलकर के सारे वादे
वो खुद में लीन हो जाते ,
चलो मिलकर गिरा दें
आज सत्ता-मद की दीवारें .
समर्पण की भाषा को तज
क्रांति स्वर में ललकारें .
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डालकर धर्म -दरारें
गले मिलते हैं सब नेता ;
कुटिल चालें हैं कलियुग की
ये न सतयुग, न है त्रेता ,
जगाकर आत्म शक्ति को
चलो अब मात दे डालें .
समर्पण की भाषा को तज
क्रांति स्वर में ललकारें.
शिखा कौशिक 'नूतन'
बुधवार, 4 जून 2014
वृक्ष की पुकार !
वृक्ष की पुकार !
वृक्ष करता है पुकार
न जाने कितनी बार ?
हे मानव !तुमने इस निर्मम कुल्हाड़ी से
मुझ पर किया वार .
अब तक सहता रहा मैं
तुम्हारा अत्याचार
अब तक सहता रहा मैं
तुम्हारा अत्याचार
तुम करते रहे मुझ से नफरत
मैं करता रहा तुम से प्यार .
मैं देता तुम्हे ऑक्सीजन
जिससे तुम्हे मिलता जीवन
हटा कर प्रदूषण
स्वच्छ बनता पर्यावरण .
यदि मैं न होता तो
होती ये भूमि बेकार
तब होती न फसल
और न होता व्यापार
इस देश की जनसँख्या है अपार
उसके लिए लाते कहाँ से खाद्यान
का भंडार ?
'कहते हैं प्रकृति माँ है !
और इन्सान उसका बेटा है '
माँ सदा देती है प्यार
पर बेटा करता उसी पर अत्याचार !
वृक्ष आगे बताता है
क्यों वह हरा सोना कहलाता है?
मिटटी का कटाव कम कर
उपजाऊपन बढाता हूँ ;
वायु मंडल को नम कर
वर्षा भी करवाता हूँ ;
औषधियां देकर
राष्ट्रीय आय बढाता हूँ ;
लकड़ी देकर अनेक व्यापार
चलवाता हूँ ,
बेंत;चन्दन,कत्था ,गोंद
इनसे चलते हैं जो व्यापार
वे ही तो है देश की प्रगति
का आधार .
बाढ़ जब आती है
सारा पानी पी जाता हूँ ;
देश को लाखों की हानि
से बचाता हूँ .
भूमि के अन्दर का
जल -स्तर ऊंचा करता जाता हूँ
रेगिस्तान के विस्तार पर
मैं ही तो रोक लगाता हूँ .
ईधन,फल -फूल ;चारा
मैं ही तो देता हूँ
लेकिन कभी तुमसे
कुछ नहीं लेता हूँ
यद् रख मानव यदि तू
मुझको काटता जायेगा
तो तू अपने जीवन को भी
नहीं बचा पायेगा ;
ऑक्सीजन;फल-फूल;औषधियां
कहाँ से लायेगा ?
किससे फर्नीचर ;स्लीपर
रेल के डिब्बे बनाएगा ?
न जाने कितने उद्योग
मुझ पर हैं आधारित ?
उन्हें कैसे चलाएगा ?
ये सब जुटाते-जुटाते
क्या तू अपना अस्तित्व
बचा पायेगा ?
कार्बन डाई ऑक्साइड का काला बादल
जब आकाश में छाएगा
तब हे मानव ! तुझे अपना
काल स्पष्ट नज़र आएगा .
तुम्हारी होने वाली
संतानों में कोई
देख;सुन;चल नहीं पायेगा
उस समय उनके लिए
वस्त्र,आहार
कहाँ से लायेगा ?
हे मानव !मुझे अपने नष्ट
होने का डर नहीं है ,
मुझे डर है कि मेरे
नष्ट होने से
तू भी नष्ट हो जायेगा !
तू भी नष्ट हो जायेगा !
तू भी नष्ट हो जायेगा !
शिखा कौशिक
[sabhi photo 'foto search ]
मंगलवार, 3 जून 2014
बूढ़ा-सजर
नितांत अकेला!
बंद कमरे की खिड़की से झांकता
पहरों पहर तकता रहता है वो
आंगन में खड़े उस तनहा बूढ़े दरख्त को
देखता है शायद कहीं
उसमे वो अपने अक्स को!
है देखता रहता एकटक
पहरों पहर तकता रहता है वो
आंगन में खड़े उस तनहा बूढ़े दरख्त को
देखता है शायद कहीं
उसमे वो अपने अक्स को!
है देखता रहता एकटक
उस उजड़े सूखे दरख्त को
जिसकी सूनी डालियाँ
कभी आबाद रहा करती थी
कुछ परिंदों की आहटों से
जिन्हें लेकर अपने साये में
भीगता तेज बरसातो में
जलता धूप के अंगारों में
ठिठुरता सर्द रातो में
तिनका-तिनका सहेज
जिनके सपनों के आशियाँ को
दिया था एक आधार
रहा झेलता वो हर मौसम की मार
पर ना कभी उफ्फ की ना कोई आह भरी
देता ही रहा सदा वो
बदले में ना उसकी कोई चाह रही
बस दिल ही दिल में कहीं
एक ख्वाब सजाये बैठा था
कि एक दिन जब वो बूढा-जर्जर हो जायेगा
पत्ता-पत्ता उसकी शाखों से झर जायेगा
उम्र की उस तन्हा शामो में भी
आबाद रहा करेंगी उसकी सूनी डालियाँ
उन परिंदों से..
पर उसके हंसी ख्वाबों की परछाईयां
वक्त के अंधेरों में एक दिन गुम हो गयी
जब उम्र की ढलती शामो में एक सुबह
सूना कर उसका आंगन
बसाने अपना एक नया आशियाँ
अपने ख्वाहिशों के आसमा में
एक-एक कर उड़ गए वो परिंदे
उसकी डालियों से
और बूढी-बेबस आँखे
जिसकी सूनी डालियाँ
कभी आबाद रहा करती थी
कुछ परिंदों की आहटों से
जिन्हें लेकर अपने साये में
भीगता तेज बरसातो में
जलता धूप के अंगारों में
ठिठुरता सर्द रातो में
तिनका-तिनका सहेज
जिनके सपनों के आशियाँ को
दिया था एक आधार
रहा झेलता वो हर मौसम की मार
पर ना कभी उफ्फ की ना कोई आह भरी
देता ही रहा सदा वो
बदले में ना उसकी कोई चाह रही
बस दिल ही दिल में कहीं
एक ख्वाब सजाये बैठा था
कि एक दिन जब वो बूढा-जर्जर हो जायेगा
पत्ता-पत्ता उसकी शाखों से झर जायेगा
उम्र की उस तन्हा शामो में भी
आबाद रहा करेंगी उसकी सूनी डालियाँ
उन परिंदों से..
पर उसके हंसी ख्वाबों की परछाईयां
वक्त के अंधेरों में एक दिन गुम हो गयी
जब उम्र की ढलती शामो में एक सुबह
सूना कर उसका आंगन
बसाने अपना एक नया आशियाँ
अपने ख्वाहिशों के आसमा में
एक-एक कर उड़ गए वो परिंदे
उसकी डालियों से
और बूढी-बेबस आँखे
हैरान सी देखती रह गयी..
समय की आंधियों में
उसके ख्वाबो का आशियाँ
तिनका-तिनका कर बिखर गया था
टूटे-बिखरे आशियाँ में शेष रह गए थे तो बस
उसके टूटे ख्वाबो के कुछ तिनके
और गुजरे लम्हों की की यादे
जिन्हें संजोये सूनी आँखों में
बेसबब इंतजार लिये
उन परिंदों के लौट आने की
तकता रहता है राह
हर दिन हर पहर
वो तन्हा बूढा सजर..
शिल्पा भारतीय "अभिव्यक्ति"
समय की आंधियों में
उसके ख्वाबो का आशियाँ
तिनका-तिनका कर बिखर गया था
टूटे-बिखरे आशियाँ में शेष रह गए थे तो बस
उसके टूटे ख्वाबो के कुछ तिनके
और गुजरे लम्हों की की यादे
जिन्हें संजोये सूनी आँखों में
बेसबब इंतजार लिये
उन परिंदों के लौट आने की
तकता रहता है राह
हर दिन हर पहर
वो तन्हा बूढा सजर..
शिल्पा भारतीय "अभिव्यक्ति"
सोमवार, 2 जून 2014
वो सियासत ही हमे ठगने लगी है
''सौप कर जिनपर हिफाजत मुल्क की ;
ले रहे थे साँस राहत की सभी ;
चलते थे जिनके कहे नक़्शे कदम पर ;
जिनका कहा हर लफ्ज तारीख था कभी ;
वो सियासत ही हमे ठगने लगी है ;
हर तरफ आवाज ये उठने लगी है .
************************************************************************************
है नहीं अब शौक खिदमत क़ा किसी को ;
हर कोई खिदमात क़ा आदी हुआ है ;
लूटकर आवाम क़ा चैन- ओ -अमन ;
वो बन गए आज जिन्दा बददुआ हैं ;
वो ही कातिल ,वो ही हमदर्द ,ये कैसी दिल्लगी है ;
हर तरफ आवाज ये उठने लगी .
************************************************************************************
कभी जो नजर उठते ही झुका देते थे;
हर एक बहन के लिए खून बहा देते थे ;
कोई फब्ती भी अगर कसता था ;
जहन्नुम उसको दिखा देते थे ;
खुले बाजार पर अब अस्मतें लुटने लगी हैं ;
हर तरफ आवाज ये उठने लगी है .
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शिखा कौशिक 'नूतन '
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