सिले लबों के टाँके सब टूटने लगे ,
मर्द के गुरूरी कोठे सब टूटने लगे !
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ज़ुल्म के जिन पिजरों में कैदी थे ख्वाब ,
जंग खाकर पिंजरे वे सब टूटने लगे !
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सहकर सितम खिलाई मैंने वफ़ा की रोटी ,
बर्दाश्त के अब चूल्हे सब टूटने लगे !
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कैदखाना था मेरा चौखट व् दीवारें ,
बढ़ते मेरे वजूद से सब टूटने लगे !
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’नूतन’ यकीन कर बदली मेरी सूरत ,
मर्दाना डर के आईने सब टूटने लगे !
शिखा कौशिक ‘नूतन’
मर्द के गुरूरी कोठे सब टूटने लगे !
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ज़ुल्म के जिन पिजरों में कैदी थे ख्वाब ,
जंग खाकर पिंजरे वे सब टूटने लगे !
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सहकर सितम खिलाई मैंने वफ़ा की रोटी ,
बर्दाश्त के अब चूल्हे सब टूटने लगे !
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कैदखाना था मेरा चौखट व् दीवारें ,
बढ़ते मेरे वजूद से सब टूटने लगे !
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’नूतन’ यकीन कर बदली मेरी सूरत ,
मर्दाना डर के आईने सब टूटने लगे !
शिखा कौशिक ‘नूतन’
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