शांत रस रौद्र में प्रचंड हो बदल रहा ! |
आस्था -अनास्था का द्वन्द उर में चल रहा ,
आस के ही गर्भ में निराशा भ्रूण पल रहा ,
भक्ति -भाव भक्त की चिता के संग है जल रहा ,
शांत रस रौद्र में प्रचंड हो बदल रहा !
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मृत्यु ने तांडव किया लील लिए भक्त ,
हाँ सृजन से दोगुना विध्वंस है सशक्त ,
मंदिरों में बिखर गया भक्त का ही रक्त ,
नहीं बढ़ा प्रभु तुम्हारा रक्षा हेतु हस्त ,
नास्तिक-आस्तिक की दुर्दशा पर हंस रहा !
शांत रस रौद्र में प्रचंड हो बदल रहा !
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है कोई सत्ता प्रभु की या ये केवल भ्रम ?
ज्वार उठ रहा पुन: क्षुब्ध अंतर्मन ,
मुंह छिपाकर घूमती भक्ति को आती शर्म ,
है यही परिणाम तो कोई क्यूँ करे सद्कर्म ?
देर क्या ? सबेर क्या ?अंधेर हो रहा !
शांत रस रौद्र में प्रचंड हो बदल रहा !
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सहस्त्र नाम जप ,व्रत ,कीर्तन ,भजन ,
अखंड पाठ ,आरती ,नित्य स्मरण ,
क्यूँ किये किसके लिए ?क्या सब हैं निरर्थक ?
साकार -निराकार की क्या धारणा है व्यर्थ ?
क्षत-विक्षत हैं भक्त शव क्या 'वो' है सो रहा ?
शांत रस रौद्र में प्रचंड हो बदल रहा !
शिखा कौशिक 'नूतन '