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सोमवार, 20 मई 2013

चेहरे पर चेहरा -सुश्री पुनीता सिंह की कहानी


   चेहरे  पर चेहरा    -सुश्री पुनीता सिंह की कहानी  "सरिता"के मई द्वितीय अंक में  शीर्षक -चहरे पर चेहरा "प्रकाशित हुई है। पढ़े और अपनी प्रतिक्रया अवश्य दें ।
         Indian_bride : Beautiful brunette portrait with traditionl costume. Indian style           
मैं जब व्याह कर आयी तो उम्र के उस दौर में थी जहाँ लडकियाँ सपनों की एक अनोखी दुनियाँ में खोयी रहती हैं।पढना लिखना, घूमना फिरना,हल्के फुल्के घरेलू काम कर देना वो भी माँ ज्यादा जोर देकर, कहतीं तो कर देती वरना मस्ती मारना सहेलियों से गप्पें मारना यही काम होता था मेरा,।मुझसे छोटी दो बहिनें थीं इसीलिये पापा को मेरी शादी की बहुत जल्दी थी।शादी के वक्त मेरी उम्र उन्नीस और अमर की चौबीस के आसपास थी।छोटे से कस्बे के पाँच कमरों वाले घर में काफी चहल-पहल रहती थी।सारा दिन घर की जिम्मेदारियाँ निभाते बीत जाता। छोटा देवर आशु बहुत ही शैतान था घर में सबसे छोटा होने के कारण सबके लाड प्यार में एकदम जिद्दी बन गया था।स्कूल से आते ही सारा समान पूरे घर में फैला कर रख देता कपडे कहीं फेकता, मोज़े कहीं तो स्कूल बैग कहीं।अर्चना और शोभा से वो पहले घर आ जाता था।आते ही फरमाइशों का दौर शुरु कर हो जाता,खाने में रोज़ उसे कुछ भी पसन्द नहीं आता,दाल,सब्जी,रायता चावल सभी थाली में छोड रुठ कर सो जाता।पता नहीं कैसा खाना चाहता था वो?माँजी भी उसकी इन आदतों से काफी परेशान रहती थी।मैं कहना चाहती थी कि आप ने ही उसकी आदतों को बिगाड कर रखा है,पर कह नहीं पाती। मालूम था माँजी नाराज़ हो जायेगीं। एक वार अमर ने कह दिया था तो कई दिनों तक घर का माहौल अशान्त बना रहा था।आशु उनका बहुत ही दुलारा था।
    अमर के बाद दो-दो साल के अन्तर पर अर्चना और शोभा का जन्म हुआ था।माँजी को एक और बेटे की चाह थी ताकि अमर के साथ उसका भाई-भाई का जोडा बन सके।ये बातें बाबूजी के मुहँ से माँजी पर गुस्सा होने के समय ज़ाहिरहो गई थी।अमर और आशु में चौदह साल का फासला था,दोनों में बिल्कुल भी नहीं बनतीं थीं।अमर बहुत ही शान्त स्वभाव के थे और आशु उग्र,मुहँफट और जिद्दी।माँ-बाबूजी से बराबर ज़ुबान लडाता,अपनी पढाई पर भी ध्यान नहीं देता था।आशु को बिगाडने में सबसे बडा हाथ माँजी का ही था। घर में जो कुछ बनता सभी को पसन्द आता कभी-कभी की बात और है मगर आशु की पसन्द ही कुछ और होती माँ जी वैसे तो रसोई में झाँकती भी नहीं थी पर आशु की पसन्द का खाना रोज़ अलग से खुद बनाती।इसी लिये उसे अपनी ज़िद्द मनमाने की आदत सी हो गई थी।
    अमर की शादी जल्दी करवा दी गई क्योकि अमर को बाबूजी का बिज़निश ही संभालना था।माँजी को भी बहू के रुप में एक सहयोगी की ज़रुरत महसूस होने लगी और व्याहकर मैं इस घर में आ गई।उम्र का वह ऎसा दौर था जब थकान का नाम ही नहीं था एक घरेलू लडकी की तरह पूरे घर का काम मैनें संभाल लिया था सभी की तारीफे सुन उत्साह में बस काम ही काम के बारे में सोचती रही कभी अपनी खुशियों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया उसी का खामियाज़ा मुझे आज भुगतना पड रहा था माँजी कई-कई महीनें मेरे ऊपर सारा घर छोड बाहर अपने मायके या रिश्तेदारों के यहाँ रहती।अर्चना और शोभा के इम्तहान भी शुरु हो गये थे पर वो अभी तक लौट कर नहीं आयी।कभी नानीजी बीमार तो कभी मामाजी के बेटे को खाँसी जुकाम, अपनी जिम्मेदारियाँ छोड्कर दूसरो का घर सम्भालना कहाँ की अक्लमन्दी है?बाबूजी बहुत गुस्सा रहते थे उनसे फोन पर ही काफी कुछ सुना डालते पर माँजी को जब आना होगा तभी आयेगीं।इस उम्र में भी माँजी महीनों मायके में गुजार आतीं बच्चों को साथ लेकर जाना भी उन्हें पसन्द नही था।पूरी आज़ादी से रहतीं,उनकी घर गृहस्थी भी बढिया चलती रहती।मैं महीनों मायके जाने को तरसती रहती।मेरे जाने से घर में सभी को असुविधा हो जाती थी। किसी को भी नहीं महसूस नहीं होता कि मेरा भी इस घर -चूल्हे-चौके से मन ऊब जाता होगा यहाँ तक कि अमर भी मेरी भावनाओं को नहीं समझते जब भी मै मायके जाने की बात करती कोई ना कोई बहाना बना मुझे रोक देते,कभी अर्चना  शोभा के एग्ज़ाम कभी आशु को कौन देखभाल करेगा माँजी भी नहीं है।जब माँजी आ जातीं तो-माँ क्या सोचेगीं अभी अभी कल ही तो माँ आयीं है कुछ दिन तो गुजरने दो,जैसे बहाने बनाने शुरु कर देते।मैं तडप कर रह जाती पर कुछ कह नहीं पाती।
  मई जून की छुट्टीयों में भैया ने शिमला घूमने जाने का प्रोग्राम बनाया था। भैया ने मुझे भी अपने साथ ले जाने के लिये बाबूजी को फोन कर दिया।पन्द्रह दिनों का प्रोगाम था।पता लगते ही घर में जैसे मातम सा छा गया।माँजी एकदम से उखड गयीं-"अपना प्रोगाम बता दिया हमारे बारे में कुछ सोचा ही नहीं मै बुढिया इतने दिनों तक अकेले कैसे पूरा घर संभालूगीं?गुस्से में भर कर मुझसे कहने लगीं-तू अपने भाई से बोल देना इस तरह आना-जाना हम पसन्द नहीं करते हैं हमें जब सुविधा होगी तभी तो भेज पायेगें"।
   "तो आप मना कर दीजिये अगर आपका मन नहीं है तो"मैने भी थोडा  नाराज़गी भरे स्वर में कह दिया।
    "कह तो ऎसे रही है जैसे हमारे मना करने से मान जायेगी तेरा मन ही नहीं है जाने का ,पहले ही भाई-बहन की बात हो गई होगी"।माँजी ने तीखे स्वरों में कहा।
   " किसका मन नहीं करता होगा मायके जाने का?यहाँ तो महीनों हो जातें हैं,अपने आप तो कोई कभी कहता ही नहीं हैं भैया कभी बुलाने को कहते तो घर में तूफान खडा हो जाता है। घर में एक नौकरानी के चले जाने से सारा काम रुक जो जाता है वरना मुझसे इतना प्यार किसे था।"मै भी गुस्से में कहना तो चाहती थी पर बात और कलह का रुप लेगी यही सोच कर चुप रह गई।
   अमर भी कहने लगे-"अच्छा तुम्हारे भैया का फोन आया घर में तनाव ही फैल गया"।
  "तो आप भी यही चाहतें हैं कि कोई भी मुझे ना बुलाये और ना मैं इस घर से बाहर कदम रखूँ। बंधुआ मज़दूर जैसी पूरी ज़िन्दगी इसी तरह दिनरात चुल्हे चोके में पिसती रहूँ मुझे भी चेन्ज़ की ज़रुरत हो सकती है कोई भी नही सोचता"।मेरी आँखों में आसूँ आ जाते हैं।
मेरे आँसू देखते ही अमर मुझे समझाने लगते-"तुमने घर को इतनी अच्छी तरह से संभाल लिया है सभी को तुम्हारी आदत सी पड गयी है तुम्हारे जाने के बाद ना तो समय पर नाश्ता मिलेगा ना रात को ढंग का डिनर ,माँ से कुछ कह भी नहीं सकता ।हर समय नाराज़ सी रहतीं हैं काम का लोड जो ज्यादा हो जाता है उन पर। तुम्हारे आने के बाद वो किचन में कम ही जातीं हैं"।
  सुवह बताना था कि हमारा क्या प्रोग्राम बना है-भैया लेने आयेंगें या इधर से कोई मुझे छोडने जायेगा।कितनी बार कहा सीधी ट्रेन है लखनऊ की, मैं चली जाऊँगी,वहाँ भैया लेने आ जायेगें पर कोई जाने देता ही नही। कहीं अकेले आना- जाना सीख गई तो जल्दी-जल्दी जाने लगूँ। किसी का आसरा भी ना देखना पडेगा।
 सुवह हिम्म्त करके बाबूजी के साथ जाकर अमर ने ही माँजी से बात की-"जाने भी दो माँ ,कुछ दिनो की ही तो बात है अर्चना- शोभा है; कामबाली है, सब काम हो ही जायेगा। आप ज्यादा टेन्शन मत लो"।
अमर बहुत ही कम बोलते थे बीबी की तरफ से बोलते देख माँजी को बहुत गुस्सा आ गया-"बडा आया बीबी की तरफ्दारी करने बाला,मैने क्या मना किया है?उसका प्रोग्राम पक्का है कौन सा मेरे रोकने से रुकने वाली है?तुझे जाना हो तो तूभी चला जा देखूँ कौन सा काम यहाँ रुक जायेगा?ज़ोरु का गुलाम कहीं का"माँजी ने धीरे से कहा पर अमर ने सुन लिया। सारा मूड खराब हो गया। बिना नाश्ता किये ही घर से चले गये।  
 सन्डे की सुवह भैया ने फोन करने को कहा था सभी लोग घर पर ही थे। भैया ने फोन किया रिंग पर रिंग बजे जा रहीं थी पर कौन उठाये ?आखिर बाबूजी ने फोन उठाया,मेरे और अमर के जाने का प्रोग्राम पक्का कर दिया और दिन भी बता दिया।माँजी का चेहरा देखने लायक था।बाबूजी इस घर के बडे थे आखिरी फैसला उन्हे ही सोच-समझकर लेना होता था।ज़िद्दी पत्नी से वो ज्यादा उलझते नहीं थे ताकि घर की शान्ति बनी रहे।माँजी बाबूजी पर काफी बिगडीं,पर बाबूजी चुपचाप रहे।सभी काम तो चलते रहे पर दो दिनों तक घर का वातावरण काफी बोझिल रहा।जाने का सारा उत्साह ही खत्म हो गया था।सारा काम खत्म कर रात को मैं अपनी पैकिंग करने लगी। कम से कम पन्द्र्ह-बीस दिनों के लिये आराम की जिन्दगी गुज़ार सकूगीं।भैया,सपना भाभी,छोटा भतीजा सभी बहुत ध्यान रखते थे मेरा।जितने दिन रहूँ मेरी ही पसन्द का खाना बनता था,  भाभी बाज़ार जातीं तो पूछ्तीं मुझे कुछ चाहिये तो नहीं?साडी ,शाल जो भी चीज़ पर मैं हाथ रख देती, मुझे जबरन दिलवा देतीं, पैसे भी नहीं लेतीं।मायके में माँ के बाद भैया भाभी ही तो रह जायेगें जो मुझे पूरी इज़्ज़त दे सकते थे।ससुराल के तनाव से कुछ दिनों के लिये राहत मिल जाती थी।
  दो दिन की छुट्टी करके अमर मुझे ले कर लखनऊ पहुँचे स्टेशन पर भैया गाडी लेकर पहले से ही हम दोनों की प्रतीक्षा कर रहे थे। छोटा भतीजा अभिषेक भी साथ था,कितना लम्बा हो गया था। कितने दिनों बाद देख रही थी उसे। आधे घन्टे में हम लोग घर आ गये। माँ और भाभी मेरे और अमर के स्वागत मे लगीं हुई थी।पूरा घर साफ-सँवरा हुआ लग रहा था।फैश हो कर हम सभी ने साथ बैठकर नाश्ता किया और गप्पें मारने लगे।
   "कितना कमज़ोर कर दिया है हमारी ननदरानी को आपने"भाभी ने अमर को ताना मारते हुये कहा।
   "पूरी किचन की मालकिन तो ये ही हैं,अब डाईटिंग करें तो कोई क्या कर सकता है।हमें तो जो कुछ भी बनाकर दे देंती हैं ,शरीफ पतियों की तरह चुपचाप खा लेतें है"।अमर ने भी मज़ाक में ज़वाब दिया।
 सभी के ठ्हाकों से घर गूँज उठा।अमर के घर में ऎसा वातावरण कहाँ मिलता था?हर वक्त सहमा-सहमा सा माहौल,बाबूजी भी बहुत नापतोल कर बोलते।माँजी के तेज़तर्रार स्वभाव के कारण अक्सर घर में बिना बात के कलेश हो जाता था।अर्चना -शोभा ज़रुर अपने कालेज के किस्से सुनातीं तो थोडा हंसी-मज़ाक हो जाता था,वो भी माँजी के सामने कुछ नहीं सुनातीं पता नहीं कौन सी बात का वो क्या मतलब निकालने लगें?
अभिषेक के टैस्ट  चल रहे थे इसलिये वो हमारे साथ नहीं जा रहा था।अमर को सुवह भैया स्टेशन छोड्ने निकल गये हमें भी रात को निकलना था।
एक हफ्ता खूब मौज़-मस्ती से गुज़ार हम लोग लौट आये।भाभी ने जी खोल कर शिमला में शापिंग की,सभी के लिये कुछ ना कुछ उपहार लेकर आयीं थीं।मैने भी माँजी और बाबूजी के लिये शाल,अर्चना और शोभा के लिये आर्टीफिशल ईअर रिंग,आशु और अमर के लिये भी उपहार लिये थे अब पता नहीं सबको पसन्द आते हैं या नहीं?ज्यादा कीमती गिफ्ट खरीदने की गुन्जाइश भी नहीं थी।  
 घूमने के बाद घर पहुँचकर थकान बहुत महसूस हो रही थी। हम सभी डिनर लेकर जल्दी ही सो गये।रविवार था इसलिये भैया, भाभी,अभिषेक देर तक सो रहे थे। मैने और माँ ने साथ बैठ्कर चाय पी।
 कल माँ से कोई बात भी नहीं हो पाई थकान बहुत हो रही थी।माँ ने प्यार से अपने पास बिठाया कहने लगीं-"तेरी ससुराल में सब ठीक चल रहा है,अमर तेरा ध्यान तो रखतें है।मेरे सिर पर हाथ रख कर बोली-तुझसे एक बात कहनी थी, बेटी बुरा मत मानना।इस टूर पर तुझे ले जाने का सपना का बिल्कुल मन नहीं था। दोनों में खूब बहस हुई कह रही थी"शादी के बाद ऎसा चाँस पडा है कि हम अकेले जायें कहीं आपने बिना मुझसे पूछे दीदी का प्रोग्राम बना डाला"।मेरे कान में जब बात पड गयी तो मैने तुझे बताना ज़रुरी समझा"।
"ये तुम क्या कह रही हो माँ"मैं बहुत हैरान थी। भाभी ने तो हर समय मेरा बहुत ध्यान रखा, कहीं से भी नहीं लगा कि वो मुझे नहीं ले जाना चाहतीं अपने साथ।
"विजय को पता है तू कहीं घूमने नहीं जा पाती फिर अभिषेक भी नहीं जा रहा था इसलिये उसने सोचा उसी बज़ट में तेरा घूमना हो जायेगा। पर बहू को अच्छा नहीं लगा।तुझे बुरा तो लग रहा होगा पर                         आगे से इस बात का ख्याल रखना।पहले इसलिये नहीं बताया घूमने का तेरा सारा मूड ही चौपट हो जाता"।माँ कह रहीं थी।
 आँखे बन्द कर मैं सोफे पर चुपचाप लेट गई ।माँ मेरी मनोदशा समझतीं थी,मुझे अकेला छोड वो अपने दैनिक काम निपटाने में लग गई। ये दुनिया भी कितनी अजीब है यहाँ हर इन्सान एक चेहरे पर दूसरा चेहरा लगाये घूम रहा है। भाभी ने एक अच्छी भाभी का रोल  बखूबी निभाया। अगर माँ ने नहीं बताया होता तो--- ,पर माँ ने सही समय देख मुझे सही राह दिखा दी ताकि उनके ना रहने के बाद भी मेरा मायके में पूरा सम्मान बना रहे।भैया तो मेरे अपने हैं पर भाभी तो और भी अच्छी है जिन्होनें इच्छा ना होते हुये भी पूरे टूर पर ये एहसास भी नहीं होने दिया कि वो मुझे नहीं लाना चाहतीं थीं।मुझे अमर और उनके घरवालों से ये बातें छुपानी होंगीं,कितनी मुसीबतों के बाद वहाँ से निकलना हो पाया था पता होता तो प्रोग्राम बनाती ही नही।अब जो हुआ सो हुआ। सबकी तरह मुझे भी अपने चेहरे पर एक और चेहरा लगाना होगा-मुस्कराता,हँसता हुआ चेहरा जो बयाँ कर रहा हो मेरा ये सफर बहुत ही यादगार रहा है।अमर को भी यही बताउँगी कि ये दिन बहुत ही हँसी खुशी से बीते।
प्रेषक-
पुनीता सिंह

12 टिप्‍पणियां:

Shikha Kaushik ने कहा…

bahut sarthak manobhavnaon ko kahani ke roop me prastut kiya hai aapne .badhai

Unknown ने कहा…

आपकी यह रचना कल मंगलवार (21 -05-2013) को ब्लॉग प्रसारण अंक - २ पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

Ranjana verma ने कहा…

अच्छी कहानी पढ़ कर निशब्द रह गयी चेहरे पे चेहरा को सार्थक करती रचना.....

Ranjana verma ने कहा…

अच्छी कहानी पढ़ कर निशब्द रह गयी चेहरे पे चेहरा को सार्थक करती रचना.....

ashokkhachar56@gmail.com ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति!

ashokkhachar56@gmail.com ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति!

ashokkhachar56@gmail.com ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति!

Laxman Bishnoi Lakshya ने कहा…

सुन्दर रचना !!
बहुत कुछ का अनुसरण करें और बहुत कुछ देखें और पढें



उम्मीद है आप मार्गदर्शन करते रहेंगे

Laxman Bishnoi Lakshya ने कहा…

सुन्दर रचना !!
बहुत कुछ का अनुसरण करें और बहुत कुछ देखें और पढें



उम्मीद है आप मार्गदर्शन करते रहेंगे

Guzarish ने कहा…

सुंदर चित्रण स्त्री मन की दशा का
पुनीता सिंह जी यह तो घर घर की कहानी है

***Punam*** ने कहा…

चेहरे पे चेहरा....
सुन्दर कहानी...

punita singh ने कहा…

sabhee sudhe pathkon ko mere or se dhnybaad