आक्रोश का ज्वार
बन कर न रह जाए कहीं
मौसमी ज्वर
कहीं कम न हो जाए
तपिश इस ज्वाला की
है नारी अस्मिता का यज्ञ
दो आहुति
अपने आक्रोश की
प्रज्वलित रहे
जब तक कि
प्रचंड ज्वाला
न लील जाए
विकृत वीभत्स विचारों को
यह लहू जो खौल रहा
रगों में
उबाल में इसके
ठंडक न आने पाए
कुत्सित विकृतियाँ
बीमार दिमागों की
छिपती रहेंगी कब तक
कानून की ओट में
बेनकाब दरिंदगी का चेहरा
सरेआम कराया जाए
बन कर न रह जाए कहीं
मौसमी ज्वर
कहीं कम न हो जाए
तपिश इस ज्वाला की
है नारी अस्मिता का यज्ञ
दो आहुति
अपने आक्रोश की
प्रज्वलित रहे
जब तक कि
प्रचंड ज्वाला
न लील जाए
विकृत वीभत्स विचारों को
यह लहू जो खौल रहा
रगों में
उबाल में इसके
ठंडक न आने पाए
कुत्सित विकृतियाँ
बीमार दिमागों की
छिपती रहेंगी कब तक
कानून की ओट में
बेनकाब दरिंदगी का चेहरा
सरेआम कराया जाए
शालिनी रस्तोगी