देख दुःखों में डूबा मुझको ;
जिनके उर आनंद मनें ,
किन्तु मेरे रह समीप ;
मेरे जो हमदर्द बनें ,
ढोंग मित्रता का किंचिंत ऐसा न मुझको भाता !
मैं ऐसे मित्र नहीं चाहता !
सुन्दर -मँहगे उपहारों से ;
भर दें जो झोली मेरी ,,
पर संकट के क्षण में जो ;
आने में करते देरी ,
तुम्हीं बताओ कैसे रखूँ उनसे मैं नेह का नाता !
मैं ऐसे मित्र नहीं चाहता !
नहीं तड़पता गर दिल उनका ;
जब आँख मेरी नम होती है ,
देख तरक्की मेरी उनको ;
यदि जलन सी होती है ,
कंटक युक्त हार फूल का मुझको लाकर पहनाता !
मैं ऐसे मित्र नहीं चाहता !
शिखा कौशिक 'नूतन '
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (28-03-2016) को "होली तो अब होली" (चर्चा अंक - 2293) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही बढ़िया अत्ती उत्तम शेयर करने के लिए धन्यवाद
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