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शुक्रवार, 30 मई 2014

सबसे बढ़कर



अभिलाषा ;आकांक्षा ;
इच्छा ;
इनसे बढ़कर ;
ईश..
अनादर ;आक्रोश ;
इतराना ;
इनसे बढ़कर ;
ईर्ष्या ;
ललक ;लालसा ;
लिप्सा ;
इनसे बढ़कर ;
लूटना ..
पतन ;पाप ;
पिपासा ;
इनसे बढ़कर ;
प्रपंच ..
किन्तु मनुष्य के लिए
सबसे बढ़कर मनुष्यता 
और कुछ नहीं 
न देवत्व न ही 
स्वर्ग का सिंहासन  !


शिखा कौशिक 'नूतन' 



शनिवार, 24 मई 2014

शायद फिर कोई बस्ती है बसने वाली यहाँ!

शाखों से जुदा पत्ते 
तनों से जुदा शाखें 
क्षत-विक्षत बिखरी चहुंओर 
ये तरुवर की लाशें 

टूटे घोसलों के बिखरे तिनके 
तिनको में बिखरा आशियाँ 
हाय ये बेघर परिंदे 
अब जाये कहाँ?

है कौन यहाँ आया 
किसने की ये तबाही 
करते करुण क्रंदन 
बर्बादी के ये मंजर दे रहे गवाही 

 लाशों के इन टुकड़ों से 
लिखने विकास की एक नयी दास्ताँ 
टूटे बिखरे आशियानो के तिनको पर 
शायद  फिर कोई इंसानी बस्ती है बसने वाली यहाँ!

शिल्पाभारतीय "अभिव्यक्ति"

जिद

लघु कथा
एक व्यक्ति अपने खेत में काम कर रहा था । काम करते करते उसे ऐसा लगा की उसके साथ कुछ बुरा होने वाला है ।पर करे क्या तभी उसने देखा की एक आदमी इधर ही आ रहा है । उसने उस आदमी को कहा " शक्ल से ब्राह्मण लगते हो जरुर हाथ देखना जानते होंगे ।उसने कहा " नही जानता ; पर वो तो पीछे ही पड़ गया । " तुम बताते हो की नहीं? ' यहाँ तुम्हे बचाने वाला कोई नहीं है , डरते हुए उसने कह दिया की तुम जल्दी नहीं मरोगे बहुत उम्र है तुम्हारी । उसने कहा " ऐसे मै नहीं मानता तुम कुछ सबूत दो जिससे लगे कि जो तुमने कहा है वो सत्य है । बेचारा डरने लगा और अपने बचाव के लिए उसके हाथ पर एक धागा बांध दिया और कहा जिस दिन ये टूट जाये समझ लेना तुम मर गये । धागा कितने दिन चलने वाला था | वो धागा दो माह बाद एक दिन टूट गया । तो वो अपनी औरत से बोला " मै आज मर गया हूँ तुम रॊओ । वो बोली ऐसे कैसे मर गये मान लूँ! तुम तो जिन्दा हो ! पर वो नहीं माना तो वो रोने लगी ।रोना सुनकर पडौसी आ गये उस व्यक्ति ने सबको यही कहा मै मर गया हूँ, मुझे जलाने ले चलो ।सबने बहुत समझाया पर किसी से भी नही माना तो लोगो ने उसे अर्थी में बांध कर श्मशान भूमि ले जाने लगे । रास्ते में एक आदमी उन लोगो से रास्ता पूछ रहे थे | । कोई भी ठीक से नहीं बता पा रहा था । तो वो व्यक्ति अर्थी में से ही बोला कि पहले तो ये सडक इधर से ही जाती थी जब में जिन्दा था, अब पता नहीं । पता पूछने वाले लोगो ने कहा ये आदमी जिन्दा है आप इसे जिंदा को ऐसे क्यों ले जा रहे हो । बहुत कहने पर भी वो नही माना तो उस व्यक्ति ने उस अर्थी में लेटे हुए आदमी के एक थप्पड़ जोर से मारा तो वो रोने चिल्लाने लगा । थप्पड़ मारने वाले आदमी ने कहा की तुम जिन्दा हो मरे हुए को मारने से तकलीफ नहीं होती है| ना ही वो रोता है अब उस व्यक्ति के सब समझ आ गया कि उसने तो मना ही किया था कि मुझे कुछ नहीं आता । मैंने ही जिद की तो आज ये दिन देखना पड़ा |
शांति पुरोहित

सोमवार, 19 मई 2014

''सर्वकालिक विद्वता''



''अंत ''
हाँ इस जीवन का अंत
निश्चित ,निःसंदेह होना ही है !
फिर भी
सुखों की लालसा में दूसरों को दुःख देना ,
अपने और अपने ही हित को देखना ,
 मैं तो अमर हूँ ये सोचना ,
 मृत्यु को धोखा देता ही रहूंगा !
दुसरे के विपदामयी जीवन पर मुस्कुराना !
मूर्खता है ,
कभी
गरीब को दुत्कारना ,
लोभवश अमीर को पुचकारना  ,
उनके साथ बैठकर गर्व का अनुभव करना ,
माया का जाल है !
तो
अब ये सोचो कैसे प्रभु के प्रिय बने ?
कैसे अपने ह्रदय में सिर्फ उनको धरें ?
ह्रदय में उनकी भक्ति बसाएं ,
उनकी भांति पूरे विश्व के प्रति ह्रदय में सद्भाव लाएं ?
ये ही विद्वता है
हाँ ! सर्वकालिक विद्वता !

शिखा कौशिक 'नूतन' 

शनिवार, 17 मई 2014

''जब घोर निराशा में डूबे हो ''


जब घोर निराशा में डूबे हो
गम का तम हो चहुँ ओर ,
ये लगे कि हम कितने बेबस ,
निरुत्साही और हैं कमजोर !
...................................................
उस वक्त ह्रदय में लाना ये
कि फिर प्रयास करेंगें अब
गिर -गिर के उठेंगें बार -बार
जीतेंगें हम , जाएगी हार हार !
...................................................
काँटों के पथ  पर नग्न पग
चलने से  हम न  हिचकिचाएं  ,
ना ही दुःखों की  धूप  से बचकर
उदासी के साये में जाएँ !
........................................................
संघर्षों की आग में तपकर
इस जीवन को कनक बनायें ,
जगमग -जगमग  कर्म  हो ऐसे
निज  चरणों  में जगत  झुकाएं  !

शिखा  कौशिक 'नूतन'  




शुक्रवार, 16 मई 2014

ह्रदय की ज्योति


कायरता की बात  मत  मुझसे किया करो ,
जब भी तुम भयभीत हो मुझसे मिला करो !
मैं तुम्हारे अंत:करण से सब भय मिटा दूंगा ,
मैं तुम्हारे ह्रदय में साहस-दीप जगा दूंगा !
मैं कौन हूँ ? मैं क्या हूँ ?मुझसे मत पूछो ,
मैं हूँ वही जिसके तुम प्रतिपल साथ रहते हो ,
कभी खुद ,कभी ईश्वर ,कभी रब -ईसा कहते हो !
सबके ह्रदय के भीतर  जो रोशनी हैं रहती  ,
पाप-कर्म के कारण मंद-मंद हैं रहती !
मैं वही हूँ ,तुम्हारी ही एक दिव्य-छवि हूँ !
और सुनो तुम्हारे पाप ही भय के कारण हैं ,
तुम छिपा सकते हो दुनिया से
पर मैं तो तुम्हारे ह्रदय की ज्योति हूँ
सब स्वयं  ही जान लेती हूँ !
चलो उठकर अपने पापों से तौबा कर लो ,
फिर देखो तनिक भी कायरता और भय न होगा
तुम प्रज्ज्वलित  दीपक के समान होगे
और सर्वत्र  तुम्हारे लिए स्वर्ग की तरह सुन्दर होगा !

शिखा कौशिक 'नूतन'



मंगलवार, 13 मई 2014

'विश्वास'


जिन्दगी ठहरती नहीं है;
चलती रहती है;
कभी धीरे -धीरे
कभी तेज रफ़्तार से;
वो मूर्ख है
जो ये सोचता है क़ि
एक दिन ऐसा आएगा क़ि
जिन्दगी रूकेगी और
उसे सलाम करेगी;
ऐसा कुछ नहीं होता;
क्योकि जिन्दगी एक
भागता हुआ पहिया है;
जो जब रूकता है
तो गिर पड़ता है;
जिन्दगी का रूकना 'मौत ' है;
जो विद्वान है अथवा जिसे
थोडा भी ज्ञान है
वे करते हैं
जिन्दगी के साथ- साथ चलने
का प्रयास;
और कभी नहीं करते
इस पर 'विश्वास'

शिखा कौशिक 'नूतन '

सोमवार, 12 मई 2014

फिसलता वक़्त



वक़्त एक ऐसी पहेली है जिसे कोई पकड़ ना पाया ना ही कोई भांप पाया ....कभी कभी लगता है वक़्त सामने होता तो क्या कहती कभी कभी सोचती हूँ वक़्त उस समय मिल जाता तो आज ये न करती, आज वो ना होता कोई नहीं जानता वक़्त किसी को कब कहाँ से कहाँ ले जा सकता है ,किस वक़्त किस्से आपकी मुलाक़ात हो जाये किस पल हम क्या खो दें किस पल हम क्या पा लें कोई नहीं जानता ...कोई नहीं ..............
वक़्त के साथ इंसान सब भूल जाता हैं पुरानी बाते  ,पुराने ख्याल ,....वक़्त हर एक पहेली को धीरे धीरे सुलझाता है रेत की तरह भागता ये वक़्त भाग ना जाये अगर वक़्त अच्छा है तो खुल के जी लो बुरा है तो सह लो क्यूंकि ये वक़्त की दौड़ है जहाँ सब हारते गए सिर्फ और सिर्फ वक़्त जीतता आया है वक़्त जीतता जाएगा ...................................................................................................
.............................................................................................................
शिखा "परी"

शनिवार, 10 मई 2014

'मदर्स डे'' का सच्चा उपहार

'मदर्स डे'' का सच्चा  उपहार

घर घर बर्तन माँजकर  विधवा सुदेश अपनी एकलौती संतान लक्ष्मी का किसी प्रकार पालन पोषण कर रही थी  .लक्ष्मी पंद्रह साल की हो चली थी और  सरकारी  स्कूल  में  कक्षा  दस  की छात्रा थी .आज  लक्ष्मी का मन बहुत उदास  था .उसकी  कक्षा  की  कई  सहपाठिनों  ने उसे बताया था कि उन्होंने अपनी माँ के लिए आज मदर्स डे पर सुन्दर उपहार ख़रीदे हैं पर लक्ष्मी के पास इतने पैसे नहीं थे कि वो माँ के लिए कोई उपहार लाती  .स्कूल से आकर लक्ष्मी ने देखा माँ काम पर नहीं गई है और कमरे में  एक खाट  पर बेसुध लेटी हुई है .लक्ष्मी ने माँ के माथे पर हथेली रख कर देखा तो वो तेज ज्वर से तप रही थी .लक्ष्मी दौड़कर डॉक्टर साहब को बुला लाई और उनके द्वारा बताई गई दवाई लाकर  माँ को दे दी .माँ जहाँ जहाँ काम करती है आज लक्ष्मी स्वयं वहां काम करने चली गयी .लौटकर देखा तो माँ की हालत में काफी सुधार हो चुका था .लक्ष्मी ने माँ का आलिंगन करते हुए कहा -''माँ आज मदर्स डे है पर मैं आपके लिए कोई उपहार नहीं ला पाई ...मुझे माफ़ कर दो !''सुदेश ने लक्ष्मी का माथा चूमते हुए कहा -''रानी बिटिया कोई माँ उपहार की अभिलाषा में संतान का पालन-पोषण नहीं करती ...तुम्हारे मन में मेरे प्रति जो स्नेह है वो तुमने मेरी सेवा कर प्रकट कर दिया है .आज तुमने मुझे ये अहसास करा दिया है कि मैं एक सफल माँ हूँ .मैंने जो स्नेह के बीज रोपे वे आज पौध बन कर तुम्हारे ह्रदय में पनप रहे हैं .तुमने ''मदर्स डे'' का सच्चा  उपहार दिया है !!''

शिखा कौशिक 'नूतन '

शुक्रवार, 9 मई 2014

माँ तो बस माँ जैसी होती है!

कोई कहे खुदा उसे
किसी के लिये खुदा जैसी होती है
स्वयं खुदा देता जिसको दर्ज़ा अपना
इस जहाँ में बस एक माँ ही ऐसी होती है
 
देकर बूँद-बूँद लहू की अपने 
हमे जो जिस्म-ओ-जाँ देती है 
पर जीवन पर्यन्त इसका वो कोई मोल कहाँ लेती है 
माँ तो बहती एक निश्चल नदी सी होती है
 
होती है जब तक उसके आँचल जितनी
दुनिया अपनी इतनी हंसी होती है
आँचल में उसके सिमटे होते है  चाँद सितारे
और गोद उसकी फूलों की सरजमी सी होती है
माँ के आँचल सी जन्नत दूजी कहाँ होती है

हर शरारत पर हमारी हौले से मुस्कुरा जो देती है
गलती पर गलती से जो दे डांट कभी
संग हमारे फिर खुद भी रो देती है
लेकर अपने दामन में हर गुनाह हमारे जो धो देती है
माँ वो पावन गंगाजल जैसी होती है

हंसकर हर दर्द अपना जो सह लेती है
गर हो कोई तकलीफ हमे
 सुख-चैन सब अपना खो देती है
रह खुद अंधेरो में करती रोशन जहां हमारा
वो जलते चिरागों सी होती है
है बंधे जिनसे रिश्तों के ये नाजुक से बंधन
माँ उन उल्फ़त के धागों सी होती है
 
 नाउम्मीदी की  स्याह रातों में 
उम्मीदों की एक सहर सी होती है
ख्वाहिशों के तपते सहराओं में
दुआओं की एक नहर सी होती है
आने देती ना कोई आंच कभी जो हमपर
सहती खुद जमाने की तेज धूप-बारिशें 
माँ एक घने सजर सी होती है

फेर दे जो सर पर हाथ प्यार से
बला हर टल जाती है
उठती गर्म हवाएं भी आती उसके आँचल से
शबनम की बूंदों में ढल जाती हैं
सीखती सबक जिंदगी के उसके साये तले
टूटी-फूटी सी हस्ती भी अपनी
एक खूबसूरत महल बन जाती है
है उसकी रहमतों पे टिका वजूद हमारा 
माँ  इस जीवन की धुरी सी होती है
 
  माँ से मीठा कोई बोल नहीं
माँ की ममता का कोई मोल नहीं
कर सके जो उसे बयाँ
बनी  ऐसी कोई परिभाषा कहाँ
वो तो है खुद में एक मुकम्मल जहां
जिसमे पूरी कायनात बसी होती है
इस में जहाँ नहीं कोई दूजी उपमा उसकी 
 माँ तो बस माँ जैसी होती है

माँ  तो बस माँ जैसी होती है

शिल्पा भारतीय "अभिव्यक्ति"
(दि.०८/०४/१४)

रविवार, 4 मई 2014

'' ये एच.एम् क्या है ?''लघु कथा

Unity : Unity of India Stock Photo
'' ये एच.एम् क्या है ?''लघु कथा
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रात के आठ बजे 'चोर..चोर..चोर ' का शोर सुनते ही गली के सभी लोग घरों से बाहर निकल आये .शर्मा जी ने एक किशोर का कॉलर कसकर पकड़ रखा था .शर्मा जी का चेहरा गुस्से से लाल था .अग्रवाल साहब उनके समीप पहुँचते हुए बोले -'' क्या हुआ शर्मा जी ?'' . शर्मा जी भड़कते हुए बोले -'' ये बदमाश मेरे घर में घुसकर एक कोने में छिपा हुआ था .वो तो अचानक मेरी नज़र वहां पड़ गयी वरना ये चोरी कर भाग जाता और हम सिर फोड़ते रह जाते .''शर्मा जी की बात सुनकर एकत्र  हुई भीड़ गुस्से में भर गयी और उस चोर को पीटने के लिए आगे बढ़ी .तभी वो चोर चीखता हुआ बोला -'' ख़बरदार जो मेरे किसी ने हाथ लगाया ...मैं मुसलमान हूँ ...एच.एम्.हो जावेगी !''वर्मा जी ने जैन साहब से धीरे से पूछा -'' ये एच.एम् क्या है ?'' जैन साहब उनके कान में धीरे से बोले -'' अरे भाई हिन्दू-मुस्लिम .''  बढती भीड़ के कदम पीछे हटने लगे तभी भीड़ को चीरते हुए दूसरी गली के जाकिर मियां चोर के पास पहुँच गए और उसके मुंह पर तमाचा लगाते हुए बोले '' क्या कहा तूने एच.एम्. हो जावेगी .चोरी के लिए तो तुझे माफ़  कर देता पर इस घटिया बात के लिए तो तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा !'' जाकिर मिया का गुस्सा देख अग्रवाल साहब व् जैन साहब ने उन्हें बमुश्किल काबू में किया .वर्मा जी ने पुलिस को फोन कर घटना स्थल पर बुला लिया और पुलिस उस चोर को  पकड़कर ले गयी .



शिखा कौशिक 'नूतन'