तबस्सुम चेहरे पर लाकर हलाक़ करते हैं ,
अकलमंद ऐसे दुनिया में तबाही करते हैं .
बरकंदाज़ी करते ये फरीकबंदी की ,
इबादत गैरों की अपनों से फरक करते हैं .
फ़रेफ्ता अपना ही होना फलसफा इनके जीवन का ,
फर्जी फरजानगी की शख्सियत ये रखते हैं .
मुनहसिर जिस सियासत के मुश्तरक उसमे सब हो लें ,
यूँ ही मौके-बेमौके फसाद करते हैं .
समझते खुद को फरज़ाना मुकाबिल हैं न ये उनके,
जो अँधेरे में भी भेदों पे नज़र रखते हैं .
तखैयुल पहले करते हैं शिकार करते बाद में ,
गुप्तचर मुजरिम को कुछ यूँ तलाश करते हैं .
हुआ जो सावन में अँधा दिखे है सब हरा उसको ,
ऐसे रोगी जहाँ में क्यूं यूँ खुले फिरते हैं .
रश्क अपनों से रखते ये वफ़ादारी करें उनकी ,
मिटाने को जो मानवता उडान भरते हैं .
हकीकत कहने से पीछे कभी न हटती ''शालिनी''
मौजूं हालात आकर उसमे ये दम भरते हैं .
शब्दार्थ-तखैयुल -कल्पना ,फसाद-लड़ाई-झगडा ,फरज़ाना -बुद्धिमान ,मुनहसिर-आश्रित ,बरकंदाज़ी -चौकीदारी ,रश्क-जलन ,फरक-भेदभाव .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
5 टिप्पणियां:
बेहतरीन शालिनी जी..लेकिन कुछ कठिन शब्द अब भी छूट गए अर्थ बताने से... उन्हें और स्पष्ट करदें तो बात बन जाए!.... आपकी उर्दू तो बेमिसाल है..लाजवाब है!
आँख मूँदकर कर रही, समझौते स्वीकार।
अपनी इस सरकार को, बार-बार धिक्कार।।
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आपकी पोस्ट का लिंक आज सोमवार के चर्चा मंच पर भी है।
बहुत सुन्दर ....
शालिनी जी क्या बात है | यहाँ भी अव्वल.
बहुत सुन्दर ....
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