घाव लगें जितनें भी तन पर कहलाते आभूषण ,
वीर का लक्ष्य करो शीघ्र ही शत्रु -दल का मर्दन ,
अडिग -अटल हो करते रहते युद्ध -धर्म का पालन ,
समर -भूमि से वीर नहीं करते हैं कभी पलायन !
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युद्ध सदा लड़ते हैं योद्धा बुद्धि -बाहु बल से ,
कापुरुषों की भाँति न लड़ते हैं माया -छल से ,
शीश कटे तो कटे किन्तु पल भर को न झुकता है ,
आज अभी लेते निर्णय क्या करना उनको कल से !
राम-वाण के आगे कैसे टिक सकता है रावण ?
समर -भूमि से वीर नहीं करते हैं कभी पलायन !
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सिया -हरण का पाप करे जब रावण इस धरती पर ,
सज्जन ,साधु ,संत सभी रह जाते हैं पछताकर ,
उस क्षण योद्धा लेता प्रण अपने हाथ उठाकर ,
फन कुचलूँगा हर पापी का कहता वक्ष फुलाकर ,
सुन ललकार राम की हिलता लंका का सिंहासन !
समर -भूमि से वीर नहीं करते हैं कभी पलायन !
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गर्जन-तर्जन मार-काट मचता है हा-हा कार ,
कटती गर्दन -हस्त कटें बहती रक्त की धार ,
रणभूमि का करते योद्धा ऐसे ही श्रृंगार ,
गिर-गिर उठकर पुनः-पुनः करते हैं वार-प्रहार ,
वीरोगति रूप मृत्यु का कहलाता सुन्दरतम !
समर -भूमि से वीर नहीं करते हैं कभी पलायन !
शिखा कौशिक 'नूतन'