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गुरुवार, 28 नवंबर 2013

अपने शहर में हम मगर गुमनाम रह गए !


शहर शहर मशहूर हुए ;नहीं गुमनाम रह गए ,
अपने शहर में हम मगर गुमनाम रह गए !
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गैरों ने दी इज्जत बहुत सिर पर बिठा लिया ,
अपनों की नज़र में मगर बदनाम रह गए !
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हमने बचाया ऐब से अपना सदा दामन ,
हमको मगर ज़ालिम कई बेईमान कह गए !
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हादसे सब झेलकर दिल बन गया फौलाद ,
आँखों के रास्ते मगर अरमान बह गए !
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हम दर्द अपना कह न पाये अपनी जुबां से ,
'नूतन' यूँ ही चुप रह के सब इल्ज़ाम सह गए !

शिखा कौशिक 'नूतन'

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (29-11-2013) को स्वयं को ही उपहार बना लें (चर्चा -1446) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'