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सोमवार, 7 दिसंबर 2015

''हैं बहुत गहरे मेरे,ज़ख्म न भर पायेंगें !''

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मरहम तसल्ली के लगा लो ,राहत नहीं कर पायेंगें ,
हैं  बहुत  गहरे  मेरे ,   ज़ख्म  न  भर  पायेंगें !
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टूटा है टुकड़े-टुकड़े  दिल ,कैसे ये जुड़ जायेगा ,
जोड़ पाने की जुगत में और चोट खायेगा ,
दर्द के धागों से कसकर लब मेरे सिल जायेंगें !
हैं  बहुत  गहरे  मेरे ,   ज़ख्म  न  भर  पायेंगें !
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है मुकद्दर  की खता जो मुझको इतने ग़म मिले ,
रुक नहीं पाये कभी आंसुओं के सिलसिले ,
है नहीं उम्मीद बाकी अच्छे दिन भी आयेंगें !
हैं  बहुत  गहरे  मेरे ,   ज़ख्म  न  भर  पायेंगें !
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अब तड़पकर रूह मेरी कहती है अक्सर बस यही ,
और क्या-क्या देखने को तू यहाँ ज़िंदा रही ,
मौत के आगोश  में ''नूतन''  सुकूं ले पायेंगें !
हैं  बहुत  गहरे  मेरे ,   ज़ख्म  न  भर  पायेंगें !


शिखा कौशिक ''नूतन'

2 टिप्‍पणियां:

kuldeep thakur ने कहा…

जय मां हाटेशवरी....
आप ने लिखा...
कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
दिनांक 09/12/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है...
इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
कुलदीप ठाकुर...

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

सुन्दर रचना......बधाई...