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गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

नारी विमर्श की व्यथा कथा




जिसे अपने वजूद को संसार में लाने के लिये जीने से पहले ही हर साँस के लिये संघर्ष करना पड़े ! जिसे बचपन अपने माता पिता और बड़े भाइयों के कठोर अनुशासन और प्रतिबंधों में और विवाह के बाद ससुराल में पति की अर्धांगिनी या सहचरी बन कर नहीं वरन सारे परिवार की दासी और सेविका बन कर जीने के लिये विवश होना पड़े वो भी इस हद तक कि विधवा हो जाने पर उसे जीते जी पति के साथ उसकी चिता के हवाले कर परलोक तक की यात्रा में उसकी अनुगामिनी बनने के लिये मजबूर कर दिया जाये उस नारी के विमर्श की कथा व्यथा मैं क्या सुनाऊँ ! वह ज़िंदा ज़रूर है, साँस भी ले रही है लेकिन हर पल ना जाने कितनी मौतें मरती है ! ऐसी बातें जब लोग सुनते हैं तो कहते हैं ये सब तो बढ़ा चढ़ा कर कही गयी बातें हैं ! अब तो बहुत सुधार आ गया है ! जी हाँ सुधार और बदलाव के नाम पर इतना परिवर्तन ज़रूर आया है कि विधवा हो जाने पर पहले स्त्री को ज़बर्दस्ती पति के साथ जीते जी ज़िंदा जला कर उसे सती घोषित कर दिया जाता था अब उसे धर्म कर्म के नाम पर वृन्दावन, काशी, बनारस के विधवा आश्रमों में नर्क से भी बदतर ज़िंदगी जीने के लिये घर से निष्कासित कर दिया जाता है ! जिनके जीवन की दुखद गाथा से अमेरिका की मशहूर टॉक शो होस्ट ओपरा विनफ्रे इतनी द्रवित हुईं कि वे सारी दुनिया को उसे सुनाने के लिये अपनी डायरी में नोट कर अमेरिका तक ले गयी हैं !   
जीवनपर्यंत नारी को संघर्ष ही तो करना पड़ता है ! सबसे पहले तो जन्म लेने के लिये संघर्ष ! अगर समझदार दर्दमंद और दयालु माता पिता मिल गये तो इस संसार में आँखें खोलने का सौभाग्य उसे मिल जाएगा वरना जिस कोख को भगवान ने उसे जीवन देने के लिये चुना वही कोख उसके लिये कब्रगाह भी बन सकती है ! जन्म ले भी लिया तो लड़की होने की वजह से घर में बचपन से ही भेदभाव की शिकार बनती है ! बेटा ‘कुलदीपक’ जो होता है बेटी तो ‘पराया धन’ होती है, एक ‘बोझ की गठरी’ ! मध्यम वर्ग में, जहाँ परिवार में धन की आपूर्ति सीमित होती है, बेटों की तुलना में बेटियों को हमेशा दोयम दर्ज़े की ज़िंदगी जीनी पड़ती है ! फल-दूध, मेवा-मिठाई, शौक-फैशन, खेल-खिलौने, शिक्षा-दीक्षा सभी पर पहला अधिकार परिवार के ‘कुलदीपकों’ का होता है ! बचा खुचा बेटियों के नसीब में आता है ! शहरों में पले बढ़े और आधुनिकता व पाश्चात्य सभ्यता का रंगीन चश्मा सदा आँखों पर चढ़ाये रखने वाले चंद पढ़े लिखे, संपन्न और शिक्षित लोगों के गले के नीचे यह बात नहीं उतरती है कि लड़कियों के साथ ऐसा भेदभाव होता है लेकिन जो भुक्त भोगी हैं ज़रा कभी उनकी आपबीती भी तो सुनिये ! भारत के गाँवों में आज भी यही मानसिकता दृढ़ता से कायम है और यह भी उतना ही सच है कि भारत की ८०% जनसंख्या गाँवों में ही रहती है ! आज भी वहाँ स्त्री का दर्ज़ा घर में नौकरानी से बड़ा नहीं है ! छोटी-छोटी गलतियों पर उसे रूई की तरह धुन दिया जाता है, मार पीट कर घर से निकाल दिया जाता है, घर वालों की फरमाइशों को पूरा करने के लिये उससे उम्मीद की जाती है कि वह अपने मायके वालों पर दबाव बनाये और समय-समय पर ससुराल वालों की ज़रूरत के अनुसार उनसे पैसा बटोर कर लाती रहे ! ऐसा ना कर पाने पर उसके शरीर पर मिट्टी का तेल डाल उसे ज़िंदा आग के हवाले कर दिया जाता है ! क्या प्रतिदिन समाचार पत्र ऐसी ख़बरों से रंगे नहीं मिलते ? आज भी उससे इस तरह के सवाल पूछे जाते हैं.......
हाय तुम औरत होकर अखबार पढ़ती हो ?
हाय तुम औरत होकर ताश खेलती हो ?
हाय तुम औरत होकर मर्दों की तरह पतलून पहनती हो ?
क्या करोगी इतना पढ़ लिख कर ? ससुराल जाकर सम्हालना तो चौका चूल्हा ही है !
आज भी यहाँ स्त्री को प्रेम करने का अधिकार नहीं है ! अंतर्जातीय सम्बन्ध जोड़ने के दंडस्वरूप उसे सरे आम मौत के घाट उतार दिया जाता है और सारा समाज मूक तमाशबीन बन इस अन्याय को घटित होते देखता रहता है !  
शहरों में जिन स्त्रियों ने ये बाधाएं पार कर ली हैं वे सडकों पर, मेट्रोज में ऑफिस में अलग तरह की मानसिक हिंसा और प्रताड़ना का शिकार हो रही हैं ! उनकी उपलब्धियों को नकारा जाता है ! उनकी तरक्की को गलत तरीके से हासिल की गयी सफलता के रूप में सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती ! उनके चरित्र पर उंगलियाँ उठाई जाती हैं ! उन्हें उपभोग की वस्तु मान हेय दृष्टि से देखा जाता है और आये दिन उन्हें लोगों की काम वासना और लोलुपता का शिकार होना पड़ता है ! मैंने कई कुँवारी लड़कियों और कम उम्र की विधवा महिलाओं को सिन्दूर लगा कर नौकरी के लिये जाते हुए देखा है ! गले में मंगलसूत्र और माँग में भरा हुआ सिन्दूर आज भी स्त्री के लिये रक्षा कवच का प्रतीक बने हुए हैं ! सोचिये नारी कहाँ स्वतंत्र और आत्म निर्भर हुई है !  
नारी इन सभी विमर्शों को सदियों से झेलती आ रही है और सभी प्रतिकूल परिस्थितियों में कठिन संघर्ष करते हुए वह खामोशी से स्वयं को सिद्ध करने में लगी हुई है लेकिन बचे हुए लोग भी कब उसकी उपलब्धियों का निष्पक्ष होकर आकलन कर पायेंगे यह देखना बाकी है ! आज वर्षों पहले इसी विषय पर लिखी अपनी एक रचना यहाँ उद्धृत कर रही हूँ ! आप भी देखिये ! शायद आपको भी पसंद आये !

तुम क्या जानो

रसोई से बैठक तक ,
घर से स्कूल तक ,
रामायण से अखबार तक
मैने कितनी आलोचनाओं का ज़हर पिया है
तुम क्या जानो !

करछुल से कलम तक ,
बुहारी से ब्रश तक ,
दहलीज से दफ्तर तक
मैंने कितने तपते रेगिस्तानों को पार किया है
तुम क्या जानो !

मेंहदी के बूटों से मकानों के नक्शों तक ,
रोटी पर घूमते बेलन से कम्प्यूटर के बटन तक , 
बच्चों के गड़ूलों से हवाई जहाज़ की कॉकपिट तक
मैंने कितनी चुनौतियों का सामना किया है
तुम क्या जानो !


जच्चा सोहर से जाज़ तक ,
बन्ना बन्नी से पॉप तक ,
कत्थक से रॉक तक
मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है
तुम क्या जानो !

सड़ी गली परम्पराओं को तोड़ने के लिये ,
बेजान रस्मों को उखाड़ फेंकने के लिये ,
निषेधाज्ञा में तनी रूढ़ियों की उँगली मरोड़ने के लिये
मैने कितने सुलगते ज्वालामुखियों की तपिश को बर्दाश्त किया है
तुम क्या जानो !

आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर
प्रतियोगिताओं की कसौटी पर घिस कर, निखर कर
कंचन सी कुंदन सी अपरूप दपदपाती
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे सामने
अजेय, अपराजेय, दिग्विजयी !
मुझे इस रूप में भी तुम जान लो
पहचान लो !

मुझे पूरी आशा है कि वह सुबह भी कभी तो आयेगी जब नारी विमर्श की इस करुण कथा का सुखान्त आयेगा और वह अपने लिये एक अनुकूल वातावरण का निर्माण कर पायेगी, घर परिवार में, समाज में और अपने कार्य स्थल पर अपने लिये एक सम्मानपूर्ण स्थान पर साधिकार बैठने का दुर्लभ स्वप्न साकार कर पायेगी और सारे संसार को अपने विजयी विराट स्वरुप के दर्शन करा चमत्कृत कर देगी ! यह भारतीय समाज की आम स्त्री का प्रतिबिम्ब है ! इनमें कई सौभाग्यशाली स्त्रियाँ ऐसी भी होंगी जिन्हें अपवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है यह कथा उनकी नहीं है ! क्षमा याचना के साथ निवेदन है कि किसीको ठेस पहुँचाना इस आलेख का उद्देश्य नहीं है ! 


साधना वैद

2 टिप्‍पणियां:

Shalini kaushik ने कहा…

बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक भावपूर्ण अभिव्यक्ति बधाई आगे बढ़कर हाथ मिला ....

Rajesh Kumari ने कहा…

हृदय को झकझोर देने वाला आलेख सार्थक सवाल इस समाज से कब सुधरेगी नारी की दशा उस नारी की जिसके बिना जिंदगी नहीं होगी