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रविवार, 26 अगस्त 2012

धिक्कार इस जनतंत्र पर !


धिक्कार इस जनतंत्र पर !



है विषमता ही विषमता  
जाती जिधर  भी है नज़र ,
कारे खड़ी  गैरेज में हैं  
और आदमी फुटपाथ  पर  .

एक तरफ तो सड़ रहे 
अन्न के भंडार हैं ,
दूसरी तरफ रहा 
भूख से इंसान मर    
 है विषमता ही विषमता  


निर्धन कुमारी ढकती तन 
चीथड़ों को जोड़कर
सम्पन्न बाला उघाडती  
कभी परदे पर कभी  रैंप पर 
 है विषमता ही विषमता  

मंदिरों में चढ़ रहे 
दूध रुपये मेवे फल  ,
भूख से विकल मानव 
भीख मांगे  सडको  पर 
 है विषमता ही विषमता  

कोठियों में रह रहे  
जनता के सेवक ठाठ से  ,
जनता के सिर पर छत नहीं 
धिक्कार इस जनतंत्र पर !

                      शिखा कौशिक 

4 टिप्‍पणियां:

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

धिक्कार पर धिक्कार!
बेहतरीन रचना

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

सच कहा आंटी आपने इस कविता मे ।

सादर

अजय कुमार ने कहा…

vishamataa ko achchha rekhaankit kiyaa , badhayi

Rajesh Kumari ने कहा…

बहुत बेहतरीन रचना